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________________ जो होदि असंमूढ़ो, चेदा सब्वेसु कम्मभावेसु । सो खलु अमूढ़दि, सम्माइट्ठि मुणेयव्बो ।। अर्थात् जो ज्ञानवान् आत्मा समस्त परभावों में असंमूढ़ होता है, वह सच्चा अमूढदृष्टि अंग का धारी है । पर यह मूढ़ता है क्या? पर से प्रभावित हो जाना मूढ़ता है। वह मूढ़ है, जिसकी दृष्टि पर से प्रभावित है । तुमने आत्मा के स्वभाव को जान लिया, फिर पर का सत्कार क्यों कर रहे हो ? अपनी पहचान कर ली, तो पर की परिचर्या में क्यों लगे हो ? यही तो सबसे बड़ी अज्ञानता है । मैं कौन हूँ? मेरा क्या है? इसका ज्ञान हो जाने, इसकी पहचान हो जाने के बाद भी यदि दूसरों के प्रति लगाव है, तो यह है कि या तो तुमने अभी जाना नहीं, या जाना है तो माना नहीं है । जान लेना सहज है, किन्तु जानने के बाद उसे मान पाना बहुत कठिन है। कुंदकुंद आचार्य इस विषय में कहते हैं जो जानने के बाद उसे मानने भी लगे, वही सच्चा अमूढदृष्टि है । 'समयसार' के आरंभ में ही मूढ़ता का विवेचन करते हुये उन्होंने तीन गाथायें दीं और स्पष्ट किया है कि इस भूमिका तक जो जीव है, वह मूढ़ है। अहमेदं एदमहं अहमेदस्सेव होमि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सचित्ताचित्तामिस्सं वा ।। 20।। आसि मम पुव्वमेदं एदस्य अहंपि आसि पुव्वंहि । होहिदि पुणोवि मज्झं एयस्स अहंपि होस्सामि । । एदं तु असंभूदं आदवियप्पं करेदि संमूढ़ो | भूदत्थं जाणंता ण करेदि दु तं असंमूढ़ो ।। यह मेरा है, मैं इसका हूँ, मैं इसका हो जाऊँगा, यह पहले मेरा था, मैं भी पूर्वकाल में इसका था, प्रकार का अवास्तविक आत्मविकल्प मूढ़ 520 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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