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________________ पर को अपना मानने से नाना प्रकार के विकल्प उठते हैं और दुःख होता है। जैसे स्वप्न आ जाये कि मैं जंगल में फँस गया। जंगल में कहीं तालाब दिखा, वहाँ पानी पीने चला गया, मगर ने पैर पकड़ लिया, मगर खींच रहा है, तो उस समय वह स्वप्न देखने वाला कितना दुःखी हो रहा है, बेचैन हो रहा है? उसी बेचैनी में नींद खुल जाये तो कितना आनन्द मानता है ? अरे! यहाँ तो कुछ भी नहीं है। वह तो झूठा स्वप्न था। कहाँ हमें मगर खींच रहा है ? आदिक बातें सोच-सोचकर उसका दुःख दूर हो जाता है। ऐसे ही समझिये कि जहाँ मोह की नींद में ये नाना विकल्प आ गये, भार अनुभव किया, तो दुःखी हो गये। और जिस समय पर को पर व स्व को स्व जाना, अपने अन्तस्तत्त्व की ओर दृष्टि की, यह तो मैं केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ, हमने अभी तक जानने का ही काम किया, आगे भी जानने का ही काम कर सकूँगा। जब तत्त्वज्ञान की आँख खुलती है, तो वह अपने को उसी प्रकार निर्भार अनुभव करता है, जैसे स्वप्न में फंसा हुआ पुरुष जाग जाने पर निर्भार अनुभव करता है। मेरे को कहाँ दुःख है? कहाँ है विपत्ति? कहाँ धन बिगड़ा? कहाँ लोग बिगड़े? कहाँ व्यापार बिगड़ा? यह मैं ज्ञान मात्र आत्मा तो पूरा-का-पूरा सुरक्षित हूँ। जिसने अपने जीवन को शान्त रखने के लिये इतना काम कर लिया, वही वास्तव में ज्ञानी है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने 'निजामृतपान' में लिखा है मोह-मद्य का पान किया चिर, अब तो तज जड़मति भाई, ज्ञान-सुधारस एक छूट ले, मुनिजन को जो अति भायी। किसी समय भी किसी तरह भी, चेतन तन में ऐक्य नहीं, ऐसा निश्चय में धारो, धारो मन में दैन्य नहीं। 22 || मूढ़ता मूर्खता को कहते हैं। मूढ़तापूर्ण दृष्टि मूढ़ कहलाती है। सम्यग्दृष्टि विवेकी होता है। वह अपने विवेक व बुद्धि से सत्य-असत्य, cu 518
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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