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________________ रहता है। वह इन पर - पदार्थों को अपना नहीं मानता। जैसे कोई मुनीम दुकान का सर्व भार संभालकर भी अंतरंग में उसे धन के प्रति यह विश्वास है कि यह मेरा नहीं है । वह जानता है कि यह सब धन सेठ का है । गृहस्थ घर में रहता हुआ भी यह जानता है कि यह धन-वैभव सब कुछ मेरा नहीं है । मेरा तो मात्र ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा है। मैं चेतन सत् हूँ । ऐसी जिसकी दृष्टि होती है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं । जो भी समागम मिला है, वह साथ नहीं जायेगा। जो चीज तुम्हारे साथ जायेगी नहीं, उसे अभी से समझ लो कि यह मेरी नहीं है। केवल भावों का फेर है । मिथ्यादृष्टि भी घर में रह रहा हो, सम्यग्दृष्टि भी घर में रह रहा हो, खाना-पीना भी साथ चल रहा हो, पर अंतर में इन दोनों में महान अन्तर है। वह मुनीम दूसरे लोगों का हिसाब बताता हुआ कहता है कि तुम पर मेरा इतना है, तुम्हारा हमारे पास इतना आया, पर भीतर में श्रद्धा यह है कि मेरा तो इसमें कुछ नहीं है, यह सब सेठ का है। परंतु वचनों से बोल रहा है कि मेरा तुम पर इतना निकलता है । वचनों से ऐसा कहते हुये भी मुनीम की श्रद्धा यह है कि मेरा कुछ नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष भी, जिसने यह निर्णय किया है कि एक अणुमात्र भी मेरा नहीं है, मेरा निज स्वरूप ही मेरा है, वह घर में रहता हुआ यह मेरी स्त्री है, यह मेरा घर है, यह मेरा वैभव है, यह मेरी दुकान है कहता हुआ भी श्रद्धा यही रखता है कि यहाँ मेरा कुछ नहीं है । जैसे आप मुसाफिरी में दिल्ली गये। किसी धर्मशाला में एक कमरा मिल गया, आपके प्रेमियों को भी अलग-अलग कमरे मिल गये । क्या आप उस समय यह नहीं कहते कि यह मेरा कमरा है और यह आपका कमरा है अथवा यह मेरा कमरा है, अतः आप दूसरा कमरा ढूँढ लें? पर श्रद्धा में क्या बसा है कि मेरा तो कमरा है नहीं, क्योंकि कल चले जायेंगे। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि घर में रहता हुआ जान रहा है कि मेरी तो मात्र मेरी आत्मा ही है, जो मेरे साथ सदा से है और सदा तक रहेगी । 517 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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