SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणों के प्रति प्रीति रखने वाले ही निर्विचिकित्सा भाव को उपलब्ध कर पाते हैं। जो गुणों का मूल्यांकन नहीं कर सकते, उनकी कद्र नहीं जानते, वे इसे प्राप्त नहीं कर सकते। अपने गुणों का बखान करना विचिकित्सा है। इसी तरह दूसरे के दोष ढूँढ़ना, उनको प्रचारित करना भी विचिकित्सा भाव जागृत करना है। यह घृणित कार्य है, ग्लानि का कारण है। इसे हम जान नहीं पाते और दोष ढूँढने की वृत्ति अपनाते रहते हैं। इस वृत्ति के रहते निर्विचिकित्सा भाव प्रकट नहीं हो सकता। दो प्रकार की अशुचिता है- एक शारीरिक अशुचिता, दूसरी काषायिक अशुचिता। घृणा-मात्सर्य सबसे बड़ी अशुचिता है। यह जिसके जीवन में हो वह तो भगवान् के समक्ष जाकर भी खाली हाथ लौट आता है। उसे तो भगवान् में भी भगवान् नहीं दिखते। घृणा ही होती है। घृणा भाव के रहते गुणों के प्रति अनुराग हो पाना संभव नहीं है। घृणा भाव का अभाव होने पर ही गुणानुरागी दृष्टि जागती है। ___संसार में कोई गुणहीन नहीं है। गुण सबमें होते हैं। देखनेवाले में दृष्टि होना चाहिए। धूलशोधक स्वर्णमिश्रित धूल से भी सोना निकाल लेता है। उसकी दृष्टि स्वर्ण के कणों पर रहती है, धूल पर नहीं। वह धूल को छान-छान कर स्वर्ण उपलब्ध कर लेता है। उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी सबमें गुणों को देखने की दृष्टि रखता है। उसे गुणों से अनुराग होता है, अवगुणों से नहीं, क्योंकि जो जिसका अभीष्ट है, वह उसकी ही उपासना करता है। हम कुछ सामान खरीदने बाजार जाते हैं। बाजार में बहुत दुकानें हैं। हम हर किसी दुकान में नहीं जाते। ध्यान रहता है कि वह सामान किस दुकान में मिलेगा, उसी में जाते हैं। उस दुकान में और भी बहुत-सी वस्तुएँ होती हैं, फिर भी हमारी दृष्टि उसी वस्तु पर पड़ती है, जो लेनी होती है, उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी गुणग्राही होता है। गुण ही उसे अभीष्ट है, अवगुणों की ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती। यदि दोष ही देखने जायें 0 4970
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy