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________________ ग्लानि रहित होकर, सेवा कर अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ करता है। जिसने आत्मा और शरीर को भिन्न जान लिया है, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि होने के कारण बाह्य रूप व मलिनता को न देख करके अन्दर के रूप व स्वच्छता को देखता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रंथ में श्री समन्तभद्र आचार्य ने लिखा है स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता।। मनुष्य का अपवित्र शरीर भी रत्नत्रय के द्वारा पूज्यता को प्राप्त हो जाता है। यह विचार कर मुनिराजों के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा' अंग है। मुनिराजों के शरीर में मलिनता हो, रोगादि हो, कभी कोढ़ भी हो जाये, तो उसे देखकर धर्मात्मा विचार करते हैं कि उनकी आत्मा तो अन्तर में सम्यग्दर्शन आदि गुणों से अलंकृत है, देह के प्रति उन्हें कोई ममत्वबुद्धि नहीं है, रोगादि तो देह में होते हैं और देह तो स्वभाव से ही अशुचिरूप है, इस प्रकार देह और आत्मा के भिन्न-भिन्न धर्मों का विचार करके धर्मीजीव देह को मलिन देखकर भी धर्मात्मा के प्रति ग्लानि नहीं करते। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्र आचार्य ने लिखा है सम्यग्दर्शन सम्पन्नम् अपि मातङ्ग देहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गरान्तरौजसम् ।। चांडाल के देह में रहा हुआ भी सम्यग्दृष्टि आत्मा देव के समान शोभता है, जिस प्रकार भस्म से ढका हुआ अंगार अन्दर ओज से चमकता रहता है। इस प्रकार आत्मा के स्वभाव को पहचानने वाले जीव शरीरादि को अशुचि देखकर भी धर्मात्मा के प्रति घृणा, तिरस्कार नहीं करते, किन्तु उनके पवित्र गुणों के प्रति आदर करते हैं। यह सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सा अंग है। 0 496_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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