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________________ तो दोषरहित तो कोई नहीं है। चन्द्रमा में भी कलंक है। दोषदर्शन की वृत्ति बनी रही तो लोग भगवान् को भी सदोष सिद्ध कर देंगे और उनके समक्ष जाकर भी कुछ उपलब्ध नहीं कर पाएंगे। गुणग्राही व्यक्ति हर किसी में गुण खोज लेता है और ग्रहण करता है। चींटी-जैसे छोटे जीव से पंक्तिबद्ध, अनुशासित तरीके से चलना सीखना चाहिये। गुणों को देखने की भावना होनी चाहिये। पर हमारी दृष्टि दूसरों के दोषों पर ही रहती है। ___ एक व्यक्ति हमेशा अपने पड़ोसी के दोष ढूँढता था। उसमें एक दोष दिखाई देता, तो वह एक पत्थर अपने घर के बाहर रख देता। उसका यह प्रतिदिन का काम था। अवगुण देखो और घर के बाहर पत्थर रखो। काफी दिन बीत गये। एक समय ऐसा आया जब उसका घर पत्थरों से ढंक गया। घर में आना-जाना कठिन हो गया। इसी तरह दूसरों के अवगुण देखते-देखते, एक-एक पत्थर हमारे अंतस् में जमा होता जा रहा है। हम अपने ही घर-आत्मा में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं। दोषदर्शन की चाह/वृत्ति रहेगी, तो देवदर्शन, निज आत्मा के दर्शन नहीं होंगे। स्वयं को देखना है तो, गुणों के दर्शन की प्रवृत्ति उत्पन्न करो। अपने पूर्वभव में रुक्मणि एक समय, दर्पण के सम्मुख बैठकर, अपना श्रंगार कर रही थी। उसी समय दर्पण में किन्ही मुनिराज की आकृति दिखाई पड़ी। उसके मन में घृणा उमड़ पड़ी- “यह कौन बदसूरत मेरे सौंदर्य-श्रंगार में उपस्थित हो गया?" धर्मात्मा के प्रति घृणा का परिणाम ये हुआ कि वह मरकर सूकरी, गधी और कुतिया की पर्याय में गई। एक के बाद एक तीन भवों में दुर्गति को प्राप्त हुई। फिर एक धीवर के परिवार में दुर्गंधा नामक बालिका के रूप में जन्म हुआ। भाग्य से पुनः वे ही मुनिराज मिले। उन्होंने अवधिज्ञान से सारा वृत्तांत जान लिया और उसे सम्बोधित किया- "कहाँ तू रानी की पर्याय में थी, पर धर्मात्मा से घृणा कर अपनी दुर्गति का कारण बनी है। यदि तू संयम अंगीकार कर ले तो su 498
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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