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________________ को कामसेना नामक वेश्या को सौंप दिया। 'अरे! कहाँ उत्तम संस्कार वाला माता-पिता का घर और कहाँ निकृष्ट वेश्या का घर।' अनन्तमती के अन्तःकरण में वेदना का पार नहीं रहा, परन्तु अपने शीलव्रत में वह अडिग रही। संसार के वैभव को देखकर वह बिलकुल ललचायी नहीं।। ऐसी सुन्दरी प्राप्त होने से कामसेना वेश्या अत्यन्त खुश हुई और अब मैं बहुत धन कमाऊँगी- ऐसा समझकर वह अनन्तमती को भ्रष्ट करने का प्रयत्न करने लगी। उसने अनन्तमती से अनेक प्रकार कामोत्तेजक बातें की, बहुत लालच दिखलाया तथा न मानने पर बहुत दुःख दिया। परन्तु अनन्तमती अपने शीलधर्म से रंचमात्र भी डिगी नहीं। अनन्तमती ने शीलगुण की दृढ़ता से संसार के सभी वैभव की आकांक्षा छोड़ दी थी, अतः किसी वैभव से ललचाये बिना वह शीलव्रत में अटल रही। जब कामसेना ने जान लिया कि अनन्तमती उसको किसी प्रकार से प्राप्त नहीं हो सकती, तब उसने बहुत धन लेकर उसे सिंहरत नामक राजा को सौंप दिया। अब बेचारी अनन्तमती मानों मगर के मुँह से निकलकर सिंह के जबड़े में जा पड़ी। वहाँ उस पर और नई मुसीबत आ गई। दुष्ट सिंहरत राजा भी उस पर मोहित हो गया। परन्तु अनन्तमती ने उसका तिरस्कार किया। तब विषयान्ध बनकर वह पापी सिंहरत राजा अभिमानपूर्वक उस सती पर बलात्कार करने को तैयार हुआ, परन्तु एक क्षण में उसका अभिमान चूर-चूर हो गया। सती के पुण्य प्रताप से वनदेवी वहाँ प्रगट हुई और दुष्ट राजा को फटकारते हुये कहने लगी- खबरदार! भूलकर भी इस सती को हाथ मत लगाना। सिंहरत राजा तो वनदेवी को देखकर ही पत्थर-जैसा हो गया। उसका हृदय भय से काँपने लगा। उसने क्षमा माँगी और तुरंत ही सेवक su 487 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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