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________________ को बुलाकर अनन्तमती को सम्मानपूर्वक वन में छोड़कर आने को कहा । ऐसे अनजान वन में कहाँ जाऊँ, इसका अनन्तमती को कुछ पता नहीं था। इतने सारे अत्याचार होने पर भी अपने शीलधर्म की रक्षा हुई, इसलिये संतोषपूर्वक घने वन में वह पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुये आगे बढ़ने लगी। महान भाग्य से थोड़ी देर पश्चात् उसने आर्यिका माताओं का संघ देखा। अत्यंत उल्लसित होकर आनंदपूर्वक वह आर्यिका माता की शरण में गई। अहो! विषय-लोलुप संसार में जिसे कहीं शरण नहीं मिली, उसने वीतराग मार्गानुगामी माताजी के पास शरण ली। उनके आश्रम आँसू भरी आँखों से उसने अपनी बीती कहानी सुनायी। उसे सुनकर भगवती माता ने वैराग्यपूर्वक उसे आश्वस्त किया और उसके शील की प्रशंसा की। भगवती माता के सानिध्य में रहकर अनन्तमती शांतिपूर्वक आत्म-साधना करने लगी। इधर चम्पापुरी में जब अनन्तमती को विद्याधर उठा कर ले गया था तभी से उसके माता-पिता बहुत दुःखी थे । पुत्री के वियोग में खेद - खिन्न होकर मन को शान्त करने के लिये वे तीर्थयात्रा करने निकले और यात्रा करते-करते तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमि अयोध्या नगरी में पहुँचे। प्रियदत्त का साला (अनन्तमती का मामा ) जिनदत्त सेठ यहीं रहता था । वहाँ उसके घर आने पर आँगन में एक सुन्दर रंगोली देखकर प्रियदत्त कहने लगे- हमारी पुत्री अनन्तमती भी ऐसी ही रंगोली निकाला करती थी । उन्हें अपनी प्रिय पुत्री की याद आई, जिससे उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी । सचमुच यह रंगोली निकालने वाली और कोई नहीं थी, बल्कि स्वयं अनन्तमती थी । भोजन करने जब वह यहाँ आयी थी, तब उसने यह रंगोली निकाली थी। बाद में वह आर्यिका संघ में वापस चली गई।अतः वे संघ में पहुँचे और वहाँ अपनी पुत्री को देखकर 4882
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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