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________________ वैभव से मैं ललचानेवाली नहीं हूँ। तेरे वैभव को मैं धिक्कारती हूँ। अनन्तमती की यह दृढ़ बात सुनकर भील राजा को गुस्सा आया और वह निर्दयतापूर्वक उस पर बलात्कार करने को तैयार हुआ। इतने में अचानक मानों आकाश फाड़कर एक महादेवी वहाँ प्रगट हुई। उस देवी का तेज वह दुष्ट सहन नहीं कर सका। उसके होश उड़ गये और वह हाथ जोड़कर क्षमा याचना करने लगा। देवी ने कहा- “यह महान शीलव्रतवती सती है। यदि तू इसे जरा भी सतायेगा तो तेरी मौत आ जायेगी।" भयभीत होकर उस भील ने अनन्तमती को गाँव के एक सेठ को बेच दिया। वह सेठ प्रथम तो कहने लगा कि वह अनन्तमती को उसके घर पहुँचा देगा, परन्तु वह भी अनन्तमती का रूप देखकर कामान्ध हो गया और और कहने लगा- "हे देवी! अपने हृदय में मुझे स्थान दे और यह अपार वैभव तू भोग।" उस पापी की बात सुनकर अनन्तमती स्तब्ध रह गई...... अरे! अब यह क्या हो रहा है ? वह सेठ को समझाने लगी- अरे सेठ! आप तो मेरे पितातुल्य हैं। दुष्ट भील के पास से यहाँ आयी तो समझने लगी थी कि मेरे पिता मुझे मिल गये और आप मुझे मेरे घर पहुँचायेंगे। अरे; आप भले आदमी होकर भी ऐसी नीच बात कर रहे हो? यह आपको शोभा नहीं देता, इसलिये इस पापबुद्धि को छोड़ दीजिये। बहुत समझाने पर भी दुष्ट सेठ नहीं समझा तो अनन्तमती ने विचार किया कि इस दुष्ट पापी का हृदय विनय प्रार्थना से नहीं पिघलेगा, इसलिये क्रोधित होकर उस सती ने कहा- "अरे दुष्ट कामान्ध! दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से। मैं तेरा मुख भी नहीं देखना चाहती।" उसका क्रोध देखकर सेठ भी भयभीत हुआ और उसकी अकल ठिकाने आ गई। परन्तु बदले की भावना से क्रोधित होकर उसने अनन्तमती 0 486_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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