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________________ पड़ा। इन इन्द्रियविषयों की चाह तो दुःख का ही कारण है । निःकांक्षित अंग का सरल अर्थ है - चाह का अंत होना । जो उपलब्ध है, उसमें संतुष्ट रहना। निःकांक्षित अंग कहता है- तुम्हारे पास जो उपलब्ध है, उसका आनन्द उठाओ। एक अंग्रेजी विचारक ने लिखा है "A man who is not contented with what he has, would not be contented with what he like to have." अर्थात् एक मनुष्य यदि उससे संतुष्ट नहीं है जो उसके पास है, तो वह उससे कैसे संतुष्ट हो सकता है, जिसे कि वह चाहता है? एक कोयल का बच्चा अपनी माँ से हठ करने लगा- "मेरे पंख काले हैं, अच्छे नहीं हैं, मुझे मोर के जैसे सुन्दर पंख चाहिये ।" कोयल ने बहुत समझाया, पर वह मचलता रहा । बालहठ के आगे कोयल विवश हो, मोर के पास गई। प्रार्थना की- "आपके पंख बहुत सुन्दर हैं, इनमें से एक दो मेरे बच्चे के लिये दे दो ।" मोर दयालु था । उसने पंख झड़ाये । कोयल का बच्चा यह देख हर्षित हो कूकने लगा। उसकी मधुर कूक सुन मोर का बच्चा मचल गया और मोर से कहने लगा- बोला- "मेरी आवाज कितनी कर्कश है, बेसुरी है। क्या स्थिति है ? मोर का बच्चा कोयल की आवाज कितनी मधुर है, मुझे तो कोयल- जैसी आवाज चाहिये । कोयल का बच्चा मोरपंख की चाहत में है । जो जिसके पास है, उससे वह संतुष्ट नहीं है । सभी एक दूसरे में सुख देख रहे हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा हैछोड़कर निःश्वास कहता है, नदी का यह किनारा, उस पार ही क्यों जमा है, जगतभर का हर्ष सारा । किन्तु लम्बी श्वास लेकर, वह किनारा कह रहा है, हाय रे ! हर एक सुख, उस पार ही क्यों बह रहा है ।। आज मनुष्य अनुपलब्ध के पीछे भाग रहा है। उसे अपने पास की चीज पर संतोष नहीं । वह जितना - जितना पाता है, उसकी प्यास उतनी 4822
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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