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________________ ही बढ़ती जाती है। लोभ की यह प्रकृति है कि जितना-जितना लाभ बढ़ता है, उतना-उतना लोभ बढ़ता जाता है। अतः जो प्राप्त है, उसमें संतोष करना, संतुष्ट रहना ही गृहस्थ का निःकांक्षित अंग है। संसार में परिग्रह को पाप की जड़ कहा गया है, क्योंकि यही समस्त पापों को कराने वाला है। वर्णी जी हमेशा कहा करते थे–भैया! और कोई व्रत लो या न लो, पर अपने परिग्रह का परिमाण कर लो, अपनी इच्छाओं को मर्यादित कर लो। सम्यग्दृष्टि जितना आवश्यक है, उसी में संतोष रखता है, अधिक की आकांक्षा नहीं रखता। आचार्यों का कहना है कि गृहस्थ को जीवननिर्वाह के लिये धन की आवश्यकता है, रखो, पर उतना ही, जितना कि आवश्यक है। तभी तुम सुख-शांतिपूर्वक रह सकोगे। यदि अधिक की चाह में उलझे, तो गये।" लेकिन आज मनुष्य गोरखधंधा में इतना उलझ गया है कि उसे दौलत के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। वह दौलत का दीवाना होकर रात-दिन, उसकी चाह में मशीन की तरह दौड़ता रहता है। ऐसे लोगों को देखकर कबीरदास जी ने लिखा है बेढ़ा दीनों खेत को, बेढ़ा खेती खाय। तीनलोक संशय पड़ा, काउ करे समझाय।। खेती की फसल की सुरक्षा के लिये बाड़-बागड़ आवश्यक है, पर बाड़ इतनी बढ़ जाये कि खेत की फसल खा जाये, यह बुद्धिमानी नहीं होगी। जो बुनियादी आवश्यकताएँ हैं, उनका प्रबन्ध कर लिया, उतने में संतोष रखना चाहिये। इससे अधिक की लालसा/तृष्णा नहीं करना चाहिये। जैसे मकड़ा दूसरे कीड़ों को पकड़ने के लिये जाल बुनता है और स्वयं ही उसमें फँस जाता है, यही स्थिति आज निर्मित हो रही है। अपने सुख के लिये जो संग्रह किया, वह परिग्रह ही सबसे अधिक चिंता का कारण बन जाता है। व्यक्ति धन कमाने में इतने व्यस्त हैं कि न उन्हें घर 0 483 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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