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________________ गया। यों ही समझो कि मेरे आत्मा को छोड़कर अन्य समस्त पदार्थ इस समय जुदे तो हैं ही। किसी समय क्षेत्र की अपेक्षा और जुदे हो गए, जुदे तो दोनों जगह बराबर हैं। किसी चीज के वियोग होने का फिर विवाद क्या? यह मैं आत्मतत्त्व ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूँ। मेरा तो मात्र ज्ञान और दर्शन है। ये 10 प्राण द्रव्यप्राण हैं। इनका वियोग होता है, ये मेरी चीज ही नहीं हैं। मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वरूप हूँ, तो फिर काहे का मरण ? मरण का भय ज्ञानी को नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि को आकस्मिक भय नहीं होता। एक भय होता है, आकस्मिक भय । ऊटपटांग कल्पनायें करने का भय । कहीं ऐसा न हो कि बिजली तड़क जाये और मैं मर जाऊँ। कहीं छत न गिर जाये और मैं मर जाऊँ। कही बैंक फैल न हो जाये और मेरे 10 लाख रुपये चले जायें। यों अज्ञानी लोग व्यर्थ का भय बना लेते हैं। ज्ञानी पुरुषों को इस प्रकार का भय नहीं होता। वे जानते हैं कि किसी भी अन्य पदार्थ से मेरे में कोई बाधा नहीं हो सकती। मैं ही व्यर्थ की कल्पनायें करके खेद-खिन्न होऊँ, पर किसी अन्य पदार्थ में यह सामर्थ्य नहीं कि मुझे खेद उत्पन्न कर सके । ज्ञानीजीव को आकस्मिक भय नहीं होता। सम्यग्दृष्टि को भय न होने का कारण व प्रयोजन बताते हुए ‘समयसार' की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने कलश 155 में कहा है - लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः, चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यंलोकयत्येकः । लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तभीः कुतो, निःशङक सततं स्वयं सः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति। यह चिद्स्वरूप ही इस विविक्त आत्मा का शाश्वत, एक और सकल व्यक्त लोक है, क्योंकि मात्र चित्स्वरूप लोक को यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है, अनुभव करता है। यह चिद्स्वरूप लोक ही तेरा है, उससे भिन्न कोई तेरा दूसरा लोक नहीं है, ज्ञानी ऐसा विचार करता है, जानता है और सदा निःशंक रहता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि 7 प्रकार के भयों से रहित होता है तथा उसे जीवादि सात तत्त्वों तथा मोक्षमार्ग पर कभी शंका नहीं होती। LU 469 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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