SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निःशंकित अंग में अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ है। तत्त्व यही है, ऐसा ही है, नहीं और, नहीं और प्रकार। जिनकी सन्मारग में रुचि हो, ऐसी मानों खड्ग की धार ।। है सम्यक्त्व अंग यह पहला, 'निःशंकित' है इसका नाम । इसके धारण करने से ही, "अंजन चोर हुआ सुख धाम।। अंजन चोर कोई मूल में चोर नहीं था, वह तो उसी भव में मोक्ष जाने वाला राजकुमार था। उसका नाम ललित कुमार था। उस राजकुमार ललित को राजा ने दुराचारी जानकर राज्य से बाहर निकाल दिया। उसने एक ऐसे अंजन (काजल) को सिद्ध कर लिया, जिसके लगाने से वह अदृश्य हो जाता था। वह काजल उसे चोरी करने में सहायक बना था, इसलिये वह अंजन चोर नाम से प्रसिद्ध हो गया। चोरी करने के उपरान्त वह जुआ और वेश्या सेवन जैसे महापाप भी करने लगा। एक बार उसकी प्रेमिका ने रानी के गले में सन्दर हार देखा और उसे पहनने की उसके मन में तीव्र इच्छा हुई। जब अंजन चोर उसके पास आया तो उसने उससे कहा- "हे अंजन! अगर तुम्हारा मुझ पर सच्चा प्रेम है तो रानी के गले का रत्नहार मुझे लाकर दो।" अंजन ने कहा- "देवी! यह बात तो मेरे लिये बहुत ही आसान है। ऐसा कहकर वह चतुर्दशी की अन्धेरी रात में राजमहल में गया और रानी के गले का हार चुराकर भागने लगा। रानी का अमूल्य रत्नहार चोरी होने से चारों ओर शोर मच गया। सिपाही दौड़े। उन्हें चोर तो दिखाई नहीं देता था, लेकिन उसके हाथ में पकड़ा हुआ हार अन्धेरे में जगमगाता हुआ दिखाई दे रहा था। उसे देखकर सिपाही उसे पकड़ने के लिये पीछे भागे। पकड़े जाने के भय से अंजन चोर हार दूर फेककर भाग गया और श्मशान में पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने एक आश्चर्यकारी घटना देखी। __एक मनुष्य को उसने पेड़ के ऊपर एक सींका बाँधकर उसमें चढ़ते – उतरते देखा, जो कुछ बोल भी रहा था। कौन था वह मनुष्य? और इतनी अंध री रात में यहाँ क्या कर रहा था? 0 470_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy