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________________ असुरक्षा समझ बैठते हैं। यहाँ अरक्षित कोई नहीं है, सब स्वरक्षित हैं। अपने से बाहर की बात पर दृष्टि दी और वह अनुकूल न अँची, उसी पर झगड़ने लगे तो यह तो उसकी कल्पना की बात है। जिस चाहे प्रसंग में अपने को अरक्षित समझने लगे, पर स्वरूप देखो तो यह मैं आत्मा कभी भी रक्षारहित नहीं होता। सदा स्वरक्षित हूँ। इसमें किसी भी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं है। ज्ञानीजीव को असुरक्षा का भय नहीं होता। सम्यग्दृष्टि को अगुप्ति का भय भी नहीं होता। एक भय लोगों को लगा रहता है अगुप्ति भय कि मेरी गुप्त बातों का किसी को पता न लग जाय । इस प्रकार का भय नहीं रहता, क्योंकि वह ऐसी कोई गुप्त बात नहीं रखता जिसके खुल जाने पर पर भय हो। ज्ञानीजीव सोचता है कि यह नियम है कि किसी भी वस्तु में किसी अन्य वस्तु का प्रवेश नहीं होता। मेरा चैतन्य-स्वरूप-दुर्ग इतना दृढ़ है कि इस स्वरूप में किसी परपदार्थ का प्रवेश नहीं होता, इसलिये मैं स्वरक्षित हूँ। किसी ने गाली दी तो वह मुझमें कहाँ घुस गई? वैभव गिर गया तो क्या हुआ? वह तो पर था। मेरे में कुछ नहीं हुआ। और वैभव के प्रति ममता हो तो ममता के कारण वह दुःखी हो। जिसे निश्चय से आत्मा की और व्यवहार से देव-शास्त्र-गुरु की शरण प्राप्त हो गई, ऐसे सम्यग्दृष्टि को असुरक्षा का भय नहीं होता। सम्यग्दृष्टि को मरण का भय नहीं होता। संसारी जीवों को मरण का बड़ा भय रहता है। मरण का भय उन जीवों को होता है जिन्हें मूर्छा, ममता, ममत्व लगा है कि 'हाय! हमने लाखों का वैभव जोड़ा और अब यह छूटा जा रहा है।' ऐसी कल्पना उठती है तो उस ममता के कारण उनको क्लेश होता है। पर ज्ञानीजीव को परपदार्थों में ममता नहीं है, वह तो अपने आप में अपने स्वरूप को निहार कर अपने चैतन्य रस से तृप्त रहता है। और रही मरण की बात तो यह एक शरीर छूट गया, नई जगह पहुँच गया, मैं तो वही-का-वही हूँ। जैसे कोई नया मकान बनाये और पुराने मकान को छोड़कर नये मकान में पहुँच गया, ऐसी ही इस आत्मा की बात है। ज्ञानीपुरुष को मरण के समय भी भय नहीं रहता। वह अपने स्वरूप की वास्तविक संभाल बनाये रहता है। ये सब बातें अपने काम 0 4670
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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