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________________ मिटाने का उपाय है। अभी सामने रस्सी पड़ी है, कुछ अंधेरा और कुछ उजेला है। सामने देखा तो भ्रम हो गया कि यह साँप है। इस भ्रम के कारण उसे डर हो गया, आकुलता हो गई, दिल काँपने लगा कि हाय! यह तो साँप है। है कुछ नहीं, रस्सी पड़ी हुई है। उसने कहा कि आखिर देखें तो कि कौन-सा साँप है? जहरीला है कि और कोई है? थोड़ा पास गया। कुछ और हिम्मत की। फिर और चला, तो देखा कि यह तो रस्सी है। लो, भ्रम खत्म हो गया, आकुलता खत्म हो गयी, दुःख खत्म हो गये। जितना भी क्लेश होता है, यह सब भ्रम से होता है। तो अपने आप ऐसा अनुभव करो, ऐसा उपयोग बनाओ कि मैं अपने सत्वमात्र हूँ, ज्ञान और आनन्द मात्र हूँ, शरीर से न्यारा हूँ, सब पदार्थों से निराला हूँ, केवल मैं आनन्द को करता हूँ और ज्ञानानन्द को ही भोगता हूँ। ज्ञानानंद में रहने के अतिरिक्त और मैं कुछ नहीं हूँ। इसी तरह से तू अपने स्वरूप का अनुभव करे तो वहाँ कुछ क्लेश नहीं है कोई विपत्ति नहीं है। विपत्ति तो भ्रम से बनती है अत: भ्रम समाप्त होते ही विपत्ति समाप्त हो जाती है। बड़े-बड़े महापुरुषों ने राम, हनुमान इत्यादि महापुरुषों ने सबकुछ छोड़ दिया, घर छोड़ दिया तथा आत्मसाधना की। क्या वह कम बुद्धि वाले थे? वे तो बड़े पुरुष थे, पूज्य पुरुष थे, आराध्यदेव थे। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि यहाँ तो सब असार है। उनसे मेरा वास्ता कुछ नहीं, फिर उन पर दृष्टि क्यों की जाये? सम्यग्ज्ञान हुआ, अतः इन्होंने सबकुछ छोड़ा, इसलिए उन्हें शुद्ध आनन्द मिला। यह आत्मा स्वयं ही स्वतंत्र है। बाहरी पदार्थों से दृष्टि हटाओ और अपने आनन्द स्वरूप में दृष्टि लगाओ। सब विकल्पों को छोड़कर अपने आप में रमो, तो वह आनन्द मिलेगा कि जिसके निमित्त से भव-भव के संचित कर्म भी मिट जायेंगे। बड़े-बड़े राग-द्वेषों की आपदायें भी क्षण भर में ही भस्म हो जावेंगी। यह इस ज्ञान की ही सामर्थ्य है, अन्य किसी में सामर्थ्य नहीं है। हम प्रभु की भक्ति क्यों करते हैं? क्योंकि वे सर्वदृष्टा हैं। जो हमें करना चाहिये, वह उनसे मार्ग मिलता है। इसी कारण हम उन पर बार-बार अनुरक्त हो जाते हैं, सबकुछ न्यौछावर करने को हम तैयार हो जाते हैं। यह जगत् की cu 437 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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