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________________ इकट्ठी की हुई माया एक विकार है, अनर्थ है, स्वयं लाभ करने वाली नहीं है। अन्य तो अन्य ही है, पर तो पर ही है, अत्यन्त जुदा है। उससे मुझमें (इस आत्मा में) कुछ बन नहीं पाता। प्रत्युत पर की ओर झुकें तो क्लेश ही थोड़ा आता है, क्योंकि पर की ओर झुकना तो अज्ञान है, वहाँ क्लेश-ही-क्लेश हैं। एक कथानक है कि दो स्त्री-पुरुष थे। जिनके नाम थे बेवकूफ और फजीहत । दोनों में लड़ाई हो जाती थी और थोड़े ही में मेल हो जाता था। उनमें लड़ाई चलती रहती थी, पर उससे कुछ बिगड़ नहीं पाता, क्योंकि जल्दी मेल भी जाता था। एक दिन इतनी लड़ाई हुई कि दोनों ने घर छोड़ दिया। वह बेवकूफ गाँव में जाकर पूछता है कि क्यों, भाई! हमारी फजीहत देखी है? पूछा-'क्यों ? क्या भाग गई ?' कुछ उत्तर नहीं दिया। 5 से पूछा, 8 से पूछा, कुछ पता न चला। एक अपरिचित आदमी था। पूछा कि भैया! तुमने हमारी फजीहत देखी है? उसने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? बोला कि मेरा नाम बेवकूफ है। उसने कहा कि भाई| बेवकफ होकर भी तम्हें क्यों फजीहत की तलाश रहती है? जरा उल्टा बोल लो, उससे ही दूसरे लोग लाठी, घूसा, जूते इत्यादि मारने के लिए तैयार हो जावेंगे। तुम्हें तो हर जगह फजीहत मिल जावेगी। इसी तरह यहाँ भी जो अज्ञानी हैं, अपने स्वरूप को नहीं अपनाते, अपनी ओर नहीं झुकते। अपने में वह प्रभु समाया हुआ है- ऐसा जब तक नहीं जानते और बाह्य पदार्थों को तरसेंगे और उनकी तरफ झुकेंगे-ऐसे अज्ञानी बने रहेंगे, ऐसे मोही जब तक बने रहेंगे, तब तक इस मोही को विपत्ति की क्या कमी है? किसी भी स्थिति में रहें, धन बढ़ गया तो क्या? अच्छे कुल वाला बन गया तो क्या ? कुछ भी हो जाये। आत्मा की वर्तमान स्थिति तो पर्याय ही है। कुछ भी बन जाय, मगर विपदा नहीं छूटेगी, चाहे तीनलोक की सम्पत्ति उसके पास एकत्रित हो जाय। __ मेरी मदद करने वाला इस लोक में कोई नहीं। मेरी शरण, रक्षक, अधि कारी, मालिक इस लोक में कोई नहीं है। अरे! दूसरों की आशा क्या करना? वह दूसरे भी सब मेरी ही तरह असहाय हैं। दुःख में, क्लेश में पैदा होकर चक्कर काट रहे हैं। जैसा मैं हूँ, वैसे ही सब हैं। 0 438 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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