SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि यह जीव शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, भगवान् स्वरूप है, ज्ञानानन्दघन है, लेकिन बाहरी पदार्थों में उपयोग कर लिया, इसके फल में महान क्लेश होना ही है। इसके मिटाने का सामर्थ्य है केवल अपने पुरुषार्थ में। “रत्नकरण्ड श्रावकाचार" में एक कथा आती है मुछमक्खन की । एक व्यक्ति का नाम मुछमक्खन था । वह एक जैन के यहाँ गया । वहाँ मट्ठा पिया । मूँछ पर हाथ फेरा। जब हाथ फेरा तो मूँछ में मक्खन लग गया । सोचा कि यह काम बहुत बढ़िया है। ऐसा रोज करूँगा। रोज किया। एक साल में अच्छा घी, लगभग एक सेर, जुड़ गया। अब जाड़े के दिनों में जनवरी के महीने में डबली को ऊपर लटकाया, नीचे आग जलाई और सो गया। अब वह स्वप्नवत् पड़े-पड़े मन में कल्पनायें करने लगा। घी को दो रुपये में बेचूँगा। दो रुपये से और-कोई सामान खरीदकर 4-5 रु. में बेचूँगा । 5 रु. का सामान खरीदकर 10-20 रु. में बेचूँगा। जब 10-20 रु. हो जावेंगे, तब फिर बकरी खरीदूँगा, गाय खरीदूँगा, बैल खरीदूँगा। बाद में जमीदारी खरीद लूँगा, विवाह करूँगा, बच्चे होंगे। इतने में एक बच्चा आ गया, बोला कि माँ ने रोटी ने खाने के लिए बुलाया है। वह कहता है कि अभी नहीं जाऊँगा । दूसरी बार फिर कहेगा कि माँ ने रोटी खाने के लिए बुलाया है। कहा अभी नहीं जाऊँगा। तीसरी बार फिर कहेगा कि माँ ने रोटी खाने के लिए बुलाया है। कहा- अबे ! कह तो दिया कि नहीं जाऊँगा। ऐसा कहकर लात फटकारी । लात की फटकार से डबली में धक्का लगा, नीचे गिर गई और फूट गई। उसकी झोपड़ी भी जलने लगी। अब तो वह झोपड़ी के बाहर निकलकर चिल्लाने लगा कि स्त्री मरी, बच्चे मर गए, गाय-भैंस खतम हो गये। लोग जो पास में थे, बोले कि कल तक तो भूखों मरता था, आज कहाँ से यह सबकुछ आ गया? बाद में उस मुछमक्खन ने सारा किस्सा सुनाया । T परमार्थ से देखो तो यह आत्मा ज्ञान मात्र है । इसका यहाँ कुछ नहीं है । ये सब कल्पनायें हैं, भ्रमजाल है । भ्रम के कारण दुःख होता है। हमने अपने दुःख को भ्रम से ही पाला है। हम ही अपने ज्ञान का सहारा करके तथा भ्रम को नष्ट करके सारे क्लेशों को दूर कर सकते हैं । यथार्थ स्वरूप ज्ञात होना ही दुःखों को 436 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy