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________________ ज्ञाने रतस्य धर्मार्थकाममोक्षे जनौ मृतौ। हेयादेयेऽपि चिंता न स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ।। 4-22|| जो किसी प्रकार अपने ज्ञानस्वभाव का विश्वास कर लेता है सारे पदार्थों का विकल्प छोड़कर, पर विश्राम से रहकर ज्ञान का अनुभव जिसके हुआ करता है, ऐसा ही यत्न करके जो अपने ज्ञान में रत होगा, उसको फिर किसी प्रकार की चिंता नहीं रहती। चिंता तो तब है, जब ममता है। जिसका शुद्ध ज्ञान होगा, उसको बाहर की चीजों में ममता नहीं रहती है। जब तक ममता रहेगी, तब तक शान्ति नहीं रहेगी, क्योंकि ममता व्यर्थ की है। ममता बरबाद ही करने वाली है, उससे कल्याण नहीं होता है। भैया! घर-गृहस्थी में रहते हुए सारे काम चलने दो। घर-गृहस्थी के काम करो, दुकान का काम करो, किसी भी काम के लिए अभी से निषेध नहीं किया जा रहा है। मगर भीतर में यह उजेला तो बना रहे कि दुनियाँ में सब ६ गोखा है। यहाँ मेरा कुछ नहीं है। अगर हो सके तो ये सब बातें भीतर से मान लो। भैया! यह सोचो कि यहाँ केवल भ्रमजाल है। ममता के प्रसंग में केवल पाप ही रहेंगे। तो भैया! मोह की बात मोह की है और ज्ञान की बात ज्ञान की ही है। ज्ञानी सभी जीव हो सकते हैं, केवल अपने ज्ञान को जगावें। मनुष्य की तो बात क्या? गाय, भैंस, सुअर, गधा, साँप और नेवला इत्यादि सभी संज्ञीजीव ज्ञानी हो सकते हैं। पुराणों में दृष्टान्त देखो, ये सभी जीव ज्ञानी दिखाये गये हैं। रागो योगेऽपि हेयश्चेदसम्बन्धे पुनर्न किम्। अयोगे रागता चेद्धा स्यां स्वस्मैं स्वे सुखी स्वयम्।। 4-32|| प्राप्त वस्तु में भी राग न हो, तो यही एक अपना विवेक है। किसी चीज में राग करते हो तो क्या वह चीज तुम्हारी है? तुम एक पदार्थ हो, अपनी सत्ता लिए हुए हो, सो तुम, तुम ही हो, तुम्हारी कोई अन्य चीज नहीं है। फिर राग करना मूर्खता है, क्योंकि तुम्हारी चीज कुछ है ही नहीं। अपने से बाहर में तुम व्यर्थ की दौड़ लगा रहे हो। बाह्य चीजों का आश्रय कर राग हो गया। राग के कारण ही ये सारे दुःख हैं। घर की, स्त्री की, मित्रों की अनुरक्ति रखना ही राग है। इस राग से तो दुःख ही होगा। 428 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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