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________________ परमार्थ से देखो तो यह आत्मा केवलज्ञानमात्र है। इसका यहाँ कुछ नहीं है। ये सब कल्पनायें हैं, भ्रमजाल है। भ्रम के कारण दुःख होता है। हमने अपने दुःख को भ्रम से ही पाला है। हम ही अपने ज्ञान का सहारा करके तथा भ्रम को नष्ट करके सारे क्लेशों को दूर कर सकते हैं। आत्मा के भ्रम से पैदा होने वाला दुःख तो भ्रम को नष्ट करने से ही दूर किया जा सकता है। इसका कोई दूसरा उपाय नहीं है। यदि अपने स्वरूप को देखो तो मोक्ष का मार्ग मिलेगा, सर्वकल्याण होगा और यदि अपने स्वरूप को भूलकर बाहरी पदार्थों में दृष्टि लगाई, तो दु:खी होना पड़ेगा। __ जितना भी क्लेश होता है, वह सब भ्रम से होता है। तो अपने आप ऐसा अनुभव करो, ऐसा उपयोग बनाओ कि मैं अपने सत्वमात्र हूँ, ज्ञान और आनन्द मात्र हूँ, शरीर से न्यारा हूँ, सब पदार्थों से निराला हूँ, । केवल मैं आनन्द को करता हूँ और ज्ञानानन्द को ही भोगता हूँ। ज्ञानानन्द में रहने के अतिरिक्त मैं और कछ नहीं हैं। इसी तरह से आप अपने स्वरूप का अनुभव करें तो वहाँ कुछ क्लेश नहीं है, कोई विपत्ति नहीं है। विपत्ति तो भ्रम से बनती है। भ्रम समाप्त होते ही विपत्ति समाप्त हो जाती है। बड़े-बड़े महापुरुषों ने राम, हनुमान इत्यादि महापुरुषों ने सबकुछ छोड़ दिया। घर छोड़ दिया, अपने स्वरूप में बसे, आत्मसाधना की। क्या वे कम बुद्धि वाले थे? वे तो बड़े पुरुष थे, आराध्य देव थे। ऐसा ऐसा उन्होंने इसलिये किया कि यहाँ तो सब असार है। इनसे मेरा वास्ता कुछ नहीं है, फिर उन पर दृष्टि क्यों की जाये? सम्यग्ज्ञान हुआ, अतः उन्होंने इन सबको छोड़ दिया। और उन्हें अपने आप आनन्द मिला। उन्होंने सब कुछ छोड़ा, इसलिए उन्हें शुद्ध आनन्द मिला। यह आत्मा खुद स्वतंत्र है। बाहरी पदार्थों से दृष्टि हटाओ और अपने आनन्दस्वरूप में दृष्टि लगाओ। सब विकल्पों को छोड़ अपने आप में रमो, तो वह आनन्द मिलेगा कि जिसके निमित्त से भव-भव के संचित कर्म भी क्षणभर में भस्म हो जावेंगे। आत्मस्वरूप के जानने पर शुद्ध जानना ही रह जायेगा और समस्त विकल्पजाल समाप्त हो जायेंगे। इसी सम्यक् मार्ग में ही मोक्ष का मार्ग है। 0 419_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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