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________________ भैया! मोह को छोड़ो। जगत में अपना कुछ न मानो। बस, इस एक ही उपाय से चलो कि कहीं मेरा कुछ नहीं है, मेरी तो एक आत्मा है, एक अकेला मैं ही हूँ। हम अपनी सत्ता में हैं, किसी का कोई कुछ नहीं है, फिर भी कोई किसी की प्रशंसा करे तो ऊँट-गधे जैसी बात है। जैसे कि मानो ऊँट का विवाह हो रहा था। उसकी शादी में गाने-बजाने के लिये गधों को बुलाया गया। गधों की दोहरी आवाज होती है। वे श्वांस भीतर करें तो बोलते, बाहर करें तो बोलते। सो वे गधा-गधी ऊँट को गीत में क्या कहते हैं कि ऊँट! तेरा रूप धन्य है, तू बहुत सुन्दर है। ऊँट की तो गर्दन टेढ़ी , टाँगें टेढ़ी, मुँह टेड़ा। कुछ भी सीधा नहीं। पर गधा कहता है कि तेरा कितना अच्छा रूप है। तो ऊँट कहता है कि धन्य है तेरा स्वर, धन्य है तेरा राग। गध और गधी ऊँट की प्रशंसा करते और ऊँट गधा और गधी की प्रशंसा करता है। इसी तरह से ये जगत के जीव एक दूसरे की प्रशंसा कर दिया करते हैं। उसमें सार की चीज कछ नहीं है। जब अपने आपसे अपने आपके स्वरूप की बात अँचे, संतोष पावे, ज्ञान पावे, तो वह सार की बात है। एक ही बात है कि पर में लगे, सो संसार है और पर से हटे और अपने आपमें लगे, सो मोक्ष का मार्ग है। पर से हटने और स्व को जानने का उपाय है- पर को पर जान लो और स्व को स्व जान लो। भैया! जिस जीव की दृष्टि बाहर में नहीं रहती है, अपने स्वरूप में उपयोग रहता है, स्व में वृत्ति जगती है, वह पुरुष धन्य है। जिसको अपने प्रभुस्वरूप की लगन लगी है, वह शहनशाह, राजा, महाराजा देव और इन्द्रों का भी राजा है, पूज्य है। जिसको अपने प्रभुस्वरूप की लगन लगी है, उसके संसार के सारे संकट टल जाते हैं। आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने अध्यात्म अमृत कलश में लिखा है अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम।। 20 4200
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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