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________________ भिन्न-भिन्न दिखते हैं, फिर वह स्वप्न में भी जौ को गेहूँ और गेहूँ को जौ नहीं कह सकता। इसी तरह सर्व परद्रव्य रहित केवल आत्मा को जानने वाला कभी उसे और रूप नहीं जान सकता। वह सर्व कल्पनाओं के जालों को काटकर आत्मस्वरूप में लीन रहकर परम तृप्त रहता है। परम निरंजन आनन्दमयी आत्मा के स्वरूप में तन्मय होना ही परमसुख का बीज है। जगत भर में किसी भी अन्य स्थान में ज्ञान, शान्ति और आनन्द का दर्शन नहीं हो सकता, सिवाय इस परमधाम के । इस धाम की यात्रा करना आत्मा का सच्चा हित है। साधक आत्मतल्लीनता की दिशा में पहुँचकर सर्वक्लेश आपदाओं से बच जाता है तथा परमसुखी, संतोषी और वीतराग हो जाता है। इस आत्मलीनता की महिमा निराली है। परम निःस्पृह ज्ञाता-दृष्टा आत्मा का आत्मा में रहना ही परम तप है। यह तप आत्मा का निजधर्म है। इस तप में संसार संबंधी न कोई व्याधि है, न आधि है। इस तप के तापसी में सदा स्वच्छ अतींद्रिय सुख की निर्मल धारा बहती रहती है। उसी धारा में यह तापसी कभी स्नान करता है, कभी उसी का जल पीता है। यह परम तप सर्व परद्रव्यों के संसर्ग से रहित है। यह तप ही स्वानुभव है । जैसे मंत्रों के प्रताप से विष उतर जाता है, ज्वर चला जाता है, उसी तरह इस स्वानुभवरूपी मंत्र के प्रभाव से मनुष्य का मन भी शान्त हो जाता है । पदार्थों के संग्रह में सुख नहीं मिलता है । दुःख का उपाय करके सुख चाहें तो कैसे मिलेगा? बबूल का बीज बोकर आम का फल चाहें तो यह कैसे हो सकता है? सुख तो अन्तर से सबके त्याग से ही होगा। केवल अपने आत्माराम को अन्तरंग से जाग्रत करते रहो तो ही सत्य सुख प्राप्त होगा। भैया ! जब भ्रम खत्म होता है और अपने ज्ञानप्रकाश की स्थिति आती है, तो उससे बढ़कर विभूति और कुछ नहीं हो सकती। वर्णी जी ने 'सहजानन्द गीता' में लिखा है दुःखमूलं स्वधीरन्ये न परऽर्थाः परे परे । स्वच्युतिः सा च स्वस्थोऽतः स्यां स्वस्मै स्व सुखी स्वयम् ।। 5-46 ।। 4032
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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