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________________ _ (मुक्त जीव की अपेक्षा) चारों गतियों में सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता का कालदेव गति में - जन्म के अन्तर्मुहूर्त पश्चात। नरक गति में - जन्म के अन्तर्मुहूर्त पश्चात। तिर्यंच गति में - वर्ष पृथक्त्व। मनुष्य गति में - 8 वर्ष अन्तर्मुहूर्त पश्चात। वास्तव में स्वानुभव ही वह मंत्र है जिसे यती, मुनि, ऋषि, अनगार निरंतर जपते हैं। वे विचार करते हैं कि मैं समस्त प्रपंचजाल को छोड़ आप ही जो कुछ हूँ, सो हूँ। मैं सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निर्विकार हूँ, आनंदमय हूँ, अनंतगुणरूप हूँ, सर्व जीवों विकल्पव्यवहार (अंतरंग वचन व बाह्य वचन बकवास) को छोड़कर मैं आपमें निश्चल मेरुवत थिर होता हुआ स्वात्व-लक्ष्मी का स्वाद लेता हूँ। __ महामोहानल में दग्ध होने वाले प्राणी चिरकाल विषयवासनाओं के दास रहते हुए अपने आपको न पाकर शांतता के मनन से कोसों दूर रहते हैं, परन्तु उन्हीं में से कोई भव्यजीव जब अपनी दृष्टि सर्व पर फन्दों से फेरकर, 'मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है ?' इस प्रश्न पर जब विचारता हुआ अपनी ओर देखता है, भीतर घुसकर अपने स्वरूप को झाँकता है, तो उसे मालूम हो जाता है कि मैं तो परम शांतता और आनंद का सागर हूँ। मेरे में न अज्ञान है, न मिथ्यात्व है, न कषाय है, न कर्म है, न नोकर्म है, न मैं नारकी हूँ, न देव हूँ, न पशु हूँ, और न मनुष्य हूँ। न मैं बाल हूँ, न युवा हूँ, और न वृद्ध हूँ। मैं कैसा हूँ? इसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। जब यह समझ जाता है कि मैं तीनलोक का नाथ ज्ञाता-दृष्टा, अविनाशी, अखंड, अतींद्रिय सुख का भंडार, परमात्मा हूँ, तब उसकी अनादिकाल की अपने को तुच्छ मानने की बुद्धि विदा हो जाती है, और 'मैं अनन्त शक्तिमय हूँ' ऐसी अहंबुद्धि उमड़ आती है। पहले देहादिक व रागादिक भावों में अहंबुद्धि थी, सो निकल जाती है। स्वचैतन्य भाव की झलक में राग-द्वेष, मोह व शत्रु-मित्र का कहीं पता नहीं चलता। अंधकार के प्रभाव में गेहूँ के साथ जौ के दाने अलग-अलग नहीं दिखते। मिश्र को ही गेहूँ समझ लेता है। परन्तु ज्ञान-प्रभात के होते ही उसे जौ और गेहूँ L 402 a
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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