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________________ सुख की भाँप भी कर सकें यह हो ही नहीं सकता। एक बार भील लोगों में आपस में चर्चा हुई कि चक्रवर्ती को कितना सुख होगा। तो एक भील बोला अरे उनके सुख का क्या कहना, उनका सुख तो इतना होगा कि वे तो हमेशा गुड़-ही-गुड़ खाते होंगे। जिसने कभी गुड़ से अच्छा पदार्थ देखा ही न हो वह इससे अधिक सुख की क्या कल्पना कर सकता है। आत्मा के ध्यान में लीन मुनिराजों को जो आत्मिक सुख होता है, उसकी विषय सुख से तुलना करना सम्भव ही नहीं है। समस्त देवेन्द्रों, नागेन्द्रों, भवनेन्द्रों, नरेन्द्रों आदि को जो सुख होता है, उस सबको मिला लिया जाये, उससे भी अनन्त गुणा सुख आत्मध्यान में लीन मुनिराजों को होता है। वेसे यह हिसाब भी उस परमार्थ सुख को छू भी नहीं सकता। उनका सुख तो उनकी ही तरह होता है उसे अन्य कोई उपमा नहीं दी जा सकती। महाराजों के सुख का वर्णन करते-करते जब थक जाते हैं तो अन्त में यही कहना पड़ता है कि महाराजों का सुख तो महराजों के समान ही होता है। आत्मिक सुख, निराकुल सुख ही सच्चा सुख है। आत्मध्यान में लीन मुनिराजों को बाहर क्या हो रहा है, इसका कुछ भी पता नहीं रहता। एक बार एक मुनिराज किसी जंगल में ध्यान मग्न खड़े थे। एक ग्वाला उनके पास आया और कहने लगा कि आप मेरे पशुओं को देखते रहना, मैं थोड़ी देर में नहा धोकर, खाना खाकर आ रहा हूँ। मुनिराज ध्यान में मग्न थे, उन्होंने न कुछ सुना ओर न कुछ कहा । ग्वाले ने समझा कि मौन ही इनकी स्वीकृति है। ग्वाला कहता है ठीक है, आपका मौन होगा, कोई बात नहीं, मैं समझ गया हूँ, मैं जा रहा हूँ, जरा ध्यान रखना, यह कहकर चला जाता है। वह जब लौटकर आता है तो वहाँ एक भी पशु नहीं पाता। सब इधर-उधर हो जाते हैं। इस पर वह मुनिराज पर बहुत नाराज होता है। कहता है – कहाँ गये मेरे पशु, तुम यहाँ पर खड़े-खड़े उन्हें रोक लेते तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता ? महराज मौन खड़े हैं, नासाग्र दृष्टि है। ग्वाला पुनः कहता है - तुम मुख से कुछ बोलते क्यों नहीं हो ? फिर कहता है – क्या तुम बहरे हो, ग्वाला कुछ उत्तर नहीं पाता। सोचता है, शायद ये बहरे हैं। व्यर्थ ही इनके पास अपना समय खराब करना है, शायद 0 3900
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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