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________________ हूँ। मेरी सत्ता मेरे ही में है । मेरी परिणति का मैं ही स्वामी हूँ । सूर्य जैसे अंधकार से अन्ध होकर अपने स्वभाव को नहीं त्यागता वैसे ही मैं अपने स्वभाव को अपनी नित्य शक्ति में से कभी त्यागने वाला नहीं हूँ। यह निश्चय रखते हुए भी कि मेरे स्वभाव रूपी निज घर में रहना सर्वथा निष्कंटक और निरंतर आनंदप्रद है, वह जीव अपने स्वभाव से बाहर - बाहर रहता है। यही इसका अपराध और दुःख का हेतु है। सुख का अर्थी इसीलिए स्वभाव - धाम में ही विश्राम करके परम अभिराम निज-ग्राम से उत्पन्न अनुपम आनन्द - धान्य पर संतोष करता हुआ और निज अनुभूति तिया से एकमत हो कल्लोल करता हुआ जिस शांति और वीतरागता का लाभ करता है, उसका मनन भवसुखपिपासु जीव को कदापि नहीं होता। वह अपराधी होकर कर्म बांधता है, जब कि स्व-स्वभाव में लीन आत्मा निरपराधी रहकर सदा निर्भार ओर निःशंक पद में अचल तिष्ठता हैं उसकी यह स्थिति परमपद् प्रगटता का एक असाधारण साधन है । कर्म फंदों से अतीत आत्मा जब अपनी अटल संपदा को अपने शांत सुखदायी भण्डार में एकत्रित देखता है तो महा आनंद में फूला नहीं समाता है। एक प्रकार की उन्मत्तता उस पर आ जाती है, जिसकी बेहोशी उससे तीन जगत को भुलवा देती है। वह तृप्त हुए सिंह के समान निर्भय हो अपनी त्रिगुप्तिमय वीतराग विज्ञानमयी गुफा के भीतर विश्राम करता है । मानों उसका सब संबंध सबसे छूट ही गया है। उसकी इस निश्चल दशा में भीतरी निद्रा नहीं है। वहाँ तो एक अद्भुत तरंगों का समुद्र लहलहा रहा है। अनंत गुणों की परिणतियाँ होती ही रहती हैं। इनके होते हुए भी इस अनुभवी को एकाकार स्वरस का ही स्वाद आता है। यह तो अपने को निर्विकल्प ही समझता है । वहाँ अपने को निर्विकल्प समझता है, या सविकल्प यह बात भी कौन कह सकता है? वहा तो ऐसी एकाग्रता व तन्मयता है कि प्रमाण, नय, निक्षेप आदि सब मारे भय के कांपते हैं, उसके स्पर्श करने का भी साहस नहीं कर सकते । शुद्धोपयोगी मुनिराजों (उत्कृष्ट अन्तरात्मा ) को जो आत्मिक सुख होता है उसकी साधारण संसारी जीव कल्पना भी नहीं कर सकते। यह सुख विषयातीत है। विषय भोगी व्यक्ति अपने विषय सुख से तुलना करने जायें और मुनिराजों के 389
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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