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________________ होता था। तब गुरु ने उन्हें ये 6 अक्षर पढ़ाये मारुष, मातुष। वे इन शब्दों को रटने लगे। इन शब्दों का अर्थ यह है कि रोष मत करो, तोष मत करो अर्थात राग-द्वेष मत करो, इससे ही सर्व सिद्धि होती है। कुछ समय बाद उनको यह भी शुद्ध याद न रहा, तब तुष मास ऐसा पाठ रटने लगे। दोनों पदों के रू और मा भूल गये और तुष माष ही याद रह गया। एक दिन वे यही रटते एवं विचारते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी। स्त्री से कोई व्यक्ति पूछता है "तू क्या कर रही है" स्त्री ने कहा तुष और माष को भिन्न-भिन्न कर रही हूँ। यह वार्ता सुनकर उन मुनिराज ने जाना कि यह शरीर ही तुष है और यह आत्मा माष है। दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार तुष–मास भिन्न रटते हुये आत्मानुभव करने लगे। आत्मानुभव के फलस्वरूप कुछ समय बाद घातिया कर्मों को नाश कर उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। उन्हें एक समय में तीनों लोकों का ज्ञान हो गया। आत्मा और शरीर का संबंध अनादिकाल से एक होकर भी किस प्रकार अलग है, यह परमानंद स्तोत्र में आचार्य महाराज निम्न श्लोकों द्वारा स्पष्ट करते हैं - पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये यथा शिवः ।। जैसे पत्थर में सोना रहता है, दूध में घी रहता है, तिल में तेल रहता है, उसी प्रकार शरीर में यह आत्मा रहती है। काष्ठमध्ये यथा बहिशक्तिरूपेण तिष्ठति। अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः ।। जिस प्रकार लकड़ी में शक्ति रूप मैं अग्नि रहती है, उसी प्रकार इस शरीर में आत्मा रहती है, जो ऐसा जानता है, वह पण्डित है। नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा। अयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति निर्मलः ।। जिस प्रकार जल कमल में जल से सर्वदा भिन्न रहता है उसी प्रकार आत्मा भी स्वभावतः शरीर से भिन्न रहती हुई शरीर में रहती है। पर अज्ञानी 0 377_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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