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________________ अपने-जैसा उत्तम भोजन परोसा, साधु ने भोजन कर लिया। एक बहुत सजेाजे कमरे में सुन्दर पलंग पर सोने के लिये कहा, साधु ने उसे भी मंजूर कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि वह राजा की तरह ही ऐशो आराम से रहने लगा। यह देखकर राजा को लगा कि ये साधु तो ऐसे ही हैं । (दूसरों के बारे में मन बहुत जल्दी खराब हो जाता है ।) आखिर एक दिन राजा ने पूछ ही लिया कि अब आपमें और मुझ में क्या अन्तर है? साधु ने कहा कि बाहर चलो घूमने चलते हैं, वहीं बतायेंगे । राजा और साधु दोनों घूमने गये। जब वे शहर से काफी दूर पहुँच गये तब राजा ने कहा- महाराज ! वापिस चलिये, महल बहुत दूर छूट गया है। साधु ने कहा कि राजन् । आपका तो सब-कुछ पीछे छूट गया है, परन्तु मेरा तो कुछ भी नहीं छूटा । आपमें और मुझमें यही अन्तर है। आप सबको अपना मानते हो, इसलिये आपका महल है, रानी है, सब कुछ है । आपका सब कुछ पीछे रह गया है, इसलिये आपको वापिस जाना है । परन्तु हमारा तो पीछे कुछ भी नहीं हैं यह शरीर भी मेरा नहीं है, इसलिये हमें तो आगे जाना है। सारे दुःखों का मूलकारण है शरीर में अपनापन । राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण है शरीर में अपनापन । जितना शरीर को अपने रूप देखोगे, उतना - उतना राग, द्वेष, मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेंगे, मोह पिघलने लगेगा | जब जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न वस्तु का ज्ञान हो जाता है। अर्थात् मैं शरीरादि से भिन्न अखण्ड, अविनाशी, शुद्धात्मतत्त्व हूँ, ये शरीरादि मेरे नही हैं, न ही मैं इनका हूँ, तब उसे पर से भिन्न निज आत्मा की रुचि पैदा हो जाती है और संसार, शरीर, भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है । और वह हमेशा आत्म सन्मुख रहने का पुरुषार्थ किया करता है । अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) का स्वरूप बताते हुये आचार्य योगीन्दु देव कहते हैं जो कोई आत्मा और पर को भले प्रकार पहचानता है तथा जो अपने आत्मा के स्वभाव को छोड़कर अन्य सब भावों को त्याग देता है, वही भेद विज्ञानी अन्तरात्मा है। वह अपने आप का अनुभव करता है और संसार से छूट जाता है । शिवभूति मुनिराज को उनके गुरु ने पढ़ाया पर उन्हें कुछ भी याद नहीं 376 2 -
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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