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________________ करके राग-द्वेष का अभाव करे, तो इसे सच्चे-सुख की प्राप्ति संभव है। 'छहढाला' ग्रंथ में पंडित श्री दौलतरात जी ने निश्चय रत्नत्रय का वर्णन करते हुए लिखा है परद्रव्यन से भिन्न आप में, रूचि सम्यक्त्व भला है। आपरूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है।। आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई। अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियत को होई।। 2 ।। अपने को अपनेरूप ज्ञाता-दृष्टारूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अपनेरूप जानना सम्यग्ज्ञान है और ज्ञाता-दृष्टारूप रह जाना ही सम्यकचारित्र है। इन तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है, और वीतरागी देव, शास्त्र, गुरु उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में निमित्त या माध्यम होते हैं। इससे व्यवहार से देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा को भी सम्यग्दर्शन कहा जाता है, जो निश्चिय मोक्षमार्ग का कारण है। शास्त्रों में विवक्षा भेद से अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं, उन्हें ठीक प्रकार से समझना चाहिये कि कहाँ कौन सी विवक्षा से क्या कहा गया है। योगसार ग्रन्थ में आचार्य योगीन्दु देव ने कहा है - आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा ही परमानन्द है, सुखदायक व कल्याण रूप है। जिसने आत्मा को नहीं जाना उसने संसार में कुछ भी नहीं जाना और जिसने आत्मा को जान लिया उसको फिर किसी चीज को जानने की जरूरत नहीं है। जो आत्मा को जानता है वही वास्तव में पंडित है। वह आत्मा कैसी है कि पाषाणेषु यथा हेम, दुग्ध्मध्ये यथा घृतम। तिल मध्ये यथा तैलं, देहमध्ये यथा शिवः । जैसे पाषाण में सोना है, दूध में घी है, तिल में तेल है, ठीक उसी प्रकार इस देहरूपी देवालय में आत्मा परमात्मा विराजमान है। जब कोई साधक योगी आत्मा के स्वभाव को परमात्मा के स्वरूप में अनुभव करता है तब वह परमानंद का रसास्वादन करता है। अतः अपने एकत्व को पहचानो। जो अपने में यह भावना भायेगा कि जगत में मेरा कुछ भी नहीं है वह नियम से सुखी होगा, कभी भी उसको दुःख नहीं होगा। अतः इन सब वस्तुओं को बाह्य वस्तु जानकर 307 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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