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________________ संयोग भी सदाकाल मिलता रहा है, अतः शरीर के साथ भी इस जीव का संयोग अनादिकालीन ही है। वस्तु-स्थिति इस प्रकार है, परन्तु इस जीव ने स्वयं को अर्थात् चेतन आत्मा को न जानने के कारण, अज्ञानतावश इस संयोगी पदार्थ अर्थात् अचेतन शरीर को ही अपना स्वरूप मान लिया है कि 'यही मैं हूँ' । स्वयं को न पहचानकर शरीर को अर्थात् अनात्मा को ही आत्मा मानना, यही इस जीव की मिथ्याबुद्धि, मिथ्यात्व या अज्ञान है। चूंकि यह शरीर में आत्मबुद्धि या अपनेपन का भाव रखता है, इसलिये शरीर के लिए अनुकूल लगने वाले पदार्थों-परिस्थितियों से राग तथा शरीर के लिये प्रतिकूल लगने वाले पदार्थों-परिस्थितियों से द्वेष करता है। इस प्रकार राग-द्वेष करके यह कर्मों को बँधता है। इन बाँधे गये कर्मों के उदय में आने के फलस्वरूप इसे पुनः शरीर आदि की जो भी बाहरी स्थितियाँ प्राप्त होती हैं उनमें फिर से एकत्व-बुद्धि करके यह पुनः राग-द्वेष करता है। इस प्रकार यह जीव निरन्तर देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच इन चार गतियों में भ्रमण करता रहता है। यदि यह जीव अपने असली स्वरूप को पहचाने अर्थात् अपने को चैतन्य स्वरूप जाने और शरीर को अपने से भिन्न एक संयोगी अचेतन पदार्थ जाने, तो इसका परपदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानने का प्रयोजन मिटे अर्थात् इसके राग-द्वेष की उत्पत्ति के मूल पर कुठाराघात हो। फिर यह राग-द्वेष के पूर्व संस्कारों को मिटाने के लिए परिग्रह का त्याग करे, क्योंकि परिग्रह के संयोग में यह निरन्तर राग-द्वेष करता रहता है। वस्तुतः ये राग-द्वेष ही इस जीव के दुःख के मूल कारण हैं अथवा राग-द्वेष स्वतः ही दुःख स्वरूप हैं। जो जीव सही-सम्यक् तत्त्व का अनुभव करके, राग-द्वेष को दुःखरूप जानकर उनसे मुक्ति के लिए अणुव्रत/महाव्रत धारण करते हैं, अपने आत्मस्वरूप में रमण करते हैं, वे मोक्षपद प्राप्त करते हैं। । दूसरी ओर, जो जीव तत्त्वज्ञान के अभाव में शरीर और आत्मा को एक मानते हैं तथा रागादि को सुखरूप जानते हैं, वे अपने इस विपरीत ज्ञान के कारण बार-बार जन्म-मरण करते रहते हैं। संसार में सभी जीव अपने राग-द्वेष के कारण दुःखी हैं। यदि यह जीव स्व-पर को पहचानकर रत्नत्रय को धारण _0_306_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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