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________________ सम्यग्दर्शन का तीसरा सोपान स्व- पर की यथार्थ श्रद्धा जब जीवों को स्व-पर की (अर्थात् अपना क्या है? पराया क्या है ?) अर्थात् अपना आत्मा है और आत्मा से भिन्न जो भी पदार्थ हैं वे अपने नहीं हैं, ऐसी श्रद्धा होती है, तब उसका जीवन सुधर जाता है। अगर हमको भी अपना जीवन सुधारना है, तो हमें जिनवाणी की बात मानना चाहिये । शक्ति अनुसार अणुव्रतों का पालन करना चाहिये और अज्ञानता छोड़कर भेदविज्ञानी बनना चाहिये। 'ज्ञानार्णव' ग्रंथ में आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने लिखा है - संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः । बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ।। जो बहिरात्मा है, वह चैतन्यस्वरूप आत्मा का देह के साथ संयोजन करता (जोड़ता) है अर्थात् एक समझता है, और जो ज्ञानी (अन्तरात्मा) है, वह देह से देही (चैतन्यस्वरूपी आत्मा) को पृथक् ही देखता है। यही ज्ञानी और अज्ञानी में भेद है। अनादिकाल से यह आत्मा अपने को भूलकर अनन्त दुःख उठा रहा है। अपने को पहिचानना / जानना ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है तथा अपने में ही लीन हो जाना सम्यक्चारित्र है । इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है, सुखी होने का सच्चा उपाय है। अतः हमें शरीरादि परद्रव्यों से भिन्न आत्मा को जानने- पहिचानने का प्रयास करना चाहिये । देह में अपनापन नहीं टूटने से राग भी नहीं टूटता, क्योंकि जो अपना है, वह कैसा भी क्यों न हो, उससे राग नहीं छूटता । 3022
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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