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________________ वही जगह दी जाये, ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। जहाँ राग रहेगा, वहाँ वीतराग अवस्था नहीं है। हाँ, राग में कमी आ सकती है और राग में कमी आते-आते एक अवस्था में राग समाप्त हो जायेगा और पूर्ण वीतराग भाव प्रकट होंगे। सुख को चाहते हुए भी यह संसारी प्राणी राग को नहीं छोड़ रहा है और इसीलिए दुःख को नहीं चाहते हुए भी दुःख पा रहा है। राग है दुःख का कारण और वीतरागता है सुख का कारण। राग बाहर की अपेक्षा रखता है, किन्तु आत्मा में होता है और वीतराग भाव पर की अपेक्षा नहीं, किन्तु आत्मा की अपेक्षा रखता है। आत्मा की अपेक्षा आप लोगों को आज तक हुई नहीं और पर की ही अपेक्षा में लगे हो। बाह्य की अपेक्षा का अर्थ है संसार और आत्मा की अपेक्षा का अर्थ है मुक्ति । यह संसारी प्राणी किसी-न-किसी से अपेक्षा रखता ही है, परन्तु अपेक्षा मात्र आत्मा की रही आवे और संसार से उपेक्षा हो जावे, तो यह प्राणी मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। मुक्ति का मार्ग यही है- 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये वीतरागता के प्रतीक हैं। इन तीनों के साथ आडम्बर नहीं रहेगा, सांसारिक परिग्रह नहीं रहेगा। एक शरीर शेष रह जाता है और उसे भी परिग्रह कब माना है? जब शरीर के प्रति मोह हो। शरीर को मात्र मोक्षपथ में साधक मानकर जो व्यक्ति चलता है, वह व्यक्ति निस्पृह है और मुक्ति का भाजक बन सकता है। भावमुक्ति तो आज भी है और उस मुक्ति को पाने का उपक्रम यही है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अपनाकर निर्ग्रन्थता अपनाएँ। ध्यान रखना, जब तक आप अकेले नहीं बनोगे, तब तक आपको मुक्ति भी नहीं मिलेगी। आज भी रत्नत्रय के आराधक मुनि महाराज हैं, जो आत्मज्ञान के बल पर स्वर्ग चले जाते हैं और स्वर्ग में भी इन्द्र या लोकान्तिक देव होते हैं और फिर मनुष्य होकर मुनि बनकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। स्वर्ग में भी उनका सम्यग्दर्शन छूटता नहीं है, इसलिये रत्नत्रय की जो भावना भायी थी ,वह भावना वहाँ जागृत रहती है। रत्नत्रय नहीं हो पा रहा है, मुक्ति नहीं मिल रही है, किन्तु cu 295 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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