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________________ सभी को बार-बार एक-एक समय में निर्जरा को क्रमशः बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये। निर्जरा के बढ़ने से मुक्ति भी पास-पास आती जायेगी। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है-प्रत्येक समय में प्रत्येक पर्याय होती है और वह पर्याय नियत है। यदि यह श्रद्धान हो जाये तो मुक्ति दूर नहीं है, वही मुक्ति है। सारे-के-सारे चोर उसके सामने सरेण्डर हो जाते हैं। नियतिवादी को क्रोध नहीं आता, नियतिवादी को किसी की गलती नजर नहीं आती। नियतिवादी के सामने प्रत्येक नियत है। "देखो, जानो, बिगड़ो मत" यह सूत्र अपनाता है वह । वीतरागी देखता रहेगा, जानता रहेगा, लेकिन बिगड़ेगा नहीं और रागी जीव देखते भी हैं, जानते भी हैं और बिगड़ भी जाते हैं, इसलिये नियतिवाद को छोड़ देते हैं। भगवान् ने जो देखा, वह नियत देखा, बिल्कुल सही-सही देखा। जो कुछ भी पर्याय निकली, यह सब भगवान् ने देखा था। उसी के अनुसार हुआ। यहाँ क्रोध, मान, माया, लोभ के लिये कोई स्थान ही नहीं है। नियतिवाद का अर्थ यही है कि अपने आप में बैठ जाना. समता के साथ। किसी भी प्रकार का हर्ष-विषाद नहीं करना, यह नियतिवाद का वास्तविक अर्थ है। नियत जो है, सो है ही, वह भगवान् जाने। यह रट लगाओ और समता के साथ ज्ञाता-दृष्टा बनकर बैठे रहो, तो कर्मरूपी चोरों से छुट्टी मिल जायेगी। मुक्ति के लिये एकाग्र होकर निराकुलतापूर्वक साधना करनी चाहिये । यहाँ तक कि आप मोक्ष के प्रति भी इच्छा मत रखो। इच्छा का अर्थ है संसार और इच्छा का अभाव है मुक्ति । अपने अन्दर निराकुल भावों का उद्घाटन करना ही मुक्ति है। आज तक राग का ही बोल-बाला रहा है, अब वीतराग अवस्था का ही मार्ग उद्घाटित करना चाहिये, क्योंकि वास्तव में देखा जाये तो संसारी प्राणी के दुःख का कारण है राग। सकल संसार त्रस्त है, आकुल-व्याकुल है और इसका कारण एक ही है कि हृदय से नहीं हटाया विषय-राग को हमने, हृदय में नहीं बिठाया वीतराग को, जो है शरण, तारण-तरण। अत: अपने को वीतराग अवस्था को अपने हृदय में स्थान देना है और राग को बाहर फेक देना है। यह ध्यान रखना, राग के लिये भी एक ही जगह दी जाये और वीतराग के लिये भी 0 294_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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