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________________ करता रहता है, उसकी भावना अहर्निश चलती रहती है। जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है, उसे अन्दर से ऐसी छटा-पटी लगी रहती है कि कब चारित्र को धारण करूँ। वास्तविक भव्य की परिभाषा में पूज्यपाद आचार्य ने यही कहा है कि "स्वहितम् उपलिप्सु" अपने हित की इच्छा रखने वाला प्रत्यासन्न निष्ठ जल्दी-जल्दी कर रहा है। जिस प्रकार भूखा व्यक्ति 'अन्न' ऐसा सुनते ही मुँह फाड़ लेता है और अन्न पाते ही बस तृप्त। उसी प्रकार मुक्ति प्राप्त करूँ ढूँढता रहता है और कोई उदाहरण स्वरूप (मुनि आदि) मिल जायें तो वह कह देता है कि बस, अब बताने की आवश्यकता नहीं है। जिस व्यक्ति को भूख है चारित्र की, वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के उपरान्त और भी तीव्र से तीव्रतम हो जाती है। सम्यक्त्व उत्पन्न होने के उपरान्त कोई भी चारित्र कठिन-से-कठिन आ जाये तो उसे हजम कर लेता है वह और कुछ भी शेष हो तो लाओ जल्दी-जल्दी, ऐसा वह व्यक्ति कहता है। अतः चारित्र लेने में जल्दी करना चाहिये, शुभस्य शीघ्रम् । मुक्ति का मार्ग है-छोड़ने के भाव। जो छोड़ देगा, त्याग करेगा, उसे प्राप्त होगी निराकुल दशा और इसी को कहते हैं वास्तविक मोक्ष । वास्तविक मोक्ष अर्थात् निराकुलता । आकुलता जितनी-जितनी घटती जाये, उतना-उतना मोक्ष आज भी है। जिस प्रकार एक-एक ग्रास के माध्यम से ही भूख मिटती है, उसी प्रकार निर्जरा के माध्यम से भी एकदेश आकुलता का अभाव होना, यह प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। जितने-जितने भाग में हम राग-द्वेष आदि आकुलता के परिणामों को समाप्त करेंगे, उतने-उतने भाग में निर्जरा भी बढ़ेगी और जितने-जितने भाग में निर्जरा बढ़ेगी, उतनी-उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। आकुलता को छोड़ने का नाम ही है मुक्ति। आकुलता को छोड़ना अर्थात् आकुलता के जो कार्य हैं, आकुलता के जो साधन हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन सबको छोड़कर, जहाँ निराकुल भाव जागृत हों, वह अनुभव ही निर्जरा और मुक्ति है। इसलिये _0293_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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