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________________ देते हैं। बज्रबाहु विचारने लगते हैं कि आज मैं इस भंयकर संसाररूपी कारागृह से निकल गया हूँ। जिस प्रकार उलझा हुआ ऊनी एक मिनट में सुलझ जाता है, उसी प्रकार जिनके संस्कार उत्तम होते हैं, वे जीव भी शीघ्र निमित्त पाकर सुलझ जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। यह कर्मों से मुक्त होना ही मोक्षतत्त्व है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- मुक्ति का अर्थ है दोषों से अपनी आत्मा को मुक्त बनाना। मुमुक्षु जीव सामायिक, प्रतिक्रमण आदि के माध्यम से अपनी आत्मा को सतत निर्दोष बनाने का प्रयास करता रहता है। वास्तविक मोक्ष अर्थात् निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाये, उतना ही मोक्ष हुआ समझो। संसारी प्राणी अनादिकाल से आक्रमण करने की आदत को लिये हुये जीवन जी रहा है, परन्तु मोक्षपथ का पथिक आक्रमण को हेय समझकर प्रतिक्रमण को जीवन में जीने का एक उपाय समझता है। 'आक्रमण' यह शब्द अपने आप में बता रहा है बाहर की ओर, यात्रा और प्रतिक्रमण यह बता रहा है अन्दर की ओर के बीच? आक्रमण संसार है, तो प्रतिक्रमण मुक्ति है। ‘कृत दोष निराकरणं प्रतिक्रमणं ।' किये हुये दोषों का मन-वचन-काय से, कृत-कारित-अनुमोदना से विमोचन करना, यह प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है ओर इस अर्थ की ओर दौड़ लगाता है वही पथिक, जो मुक्ति की वास्तविक इच्छा रखता है। अपनी आत्मा की उपलब्धि ही मुक्ति है और प्रतिक्रमण का अर्थ भी है अपने आप में मुक्ति। किससे मुक्ति? दोषों से मुक्ति। इसका अर्थ यह हो गया कि संसारी दोष करता है, किन्तु दोषी नहीं हूँ यह सिद्ध करने के लिये निरंतर आक्रमण करता जाता है दूसरों के ऊपर । एक असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिय हजारा असत्यों का आलंबन और लेता है। प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता। वह उन दोषों का निवारण करने का प्रयास नहीं करता, किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है इस संसार में, जो अपने दोषों को छोड़ने के लिये, दंड स्वयं अपने हाथ से लेने के लिये हर क्षण तैयार है। प्रत्येक साधक जीव प्रतिक्रमण को गुपचुप-चुपचाप 0 2920
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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