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________________ अंतर है कि तुम मरते समय कहोगे कि मेरा राज्य चला गया, मेरा धन-धान्य चला गया। फकीर ने संक्षेप में समझाकर बता दिया और कहा - स्वप्नों की धूल स्मृति से निकाल दो, दिन भर की घटित घटनाओं को भी भूल जाओ, तो सरलता आयेगी। सम्यग्दृष्टि जीव की दशा का वर्णन करते हुऐ श्री शिवराम जी ने लिखा दुनियाँ में रहें या दूर रहें, जो खुद में समाये रहते हैं, सब काम जगत का किया करें, नहीं प्यार किसी से करते हैं । यह चक्रवर्ती पद भोग करें, पर भोगों में लीन नहीं रहते हैं, वह जल में कमल की भांति सदा, घर बार बसाये रहते हैं । दुनियाँ में रहें या दूर रहेंपर मग्न रहें निज आतम में, भी रुचि हटाये रहते हैं। दुनियाँ में रहें या दूर रहेंस्वामित्व न आपना वे धरते हैं, दुःखी, समभाव धराये रहते हैं। दुनियाँ में रहें या दूर रहें हैं धन्य-धन्य वे निर्मोही, जिन शान्त दशा यह प्रगटाई, 'शिवराम' चरण में उनके, सदा शीश झुकाये रहते हैं । दुनियाँ में रहें या दूर रहें वह नरक वेदना सहते हैं, वह स्वर्ग सम्पदा पाकर नहीं कर्म के कर्त्ता बनते हैं, नहीं सुख में सुखी, नहीं दुःख में आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने लिखा है ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्रमवम् । सद्यः प्रक्षीयते कर्म शुद्धयत्यङ्गी सुवर्णवत् ।। यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुये हैं, तथापि वे ध्यानरूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं । उनके क्षय हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्मों की निर्जरा कर शुद्ध (मुक्त) हो जाता है। 276 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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