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________________ मुक्ति पाने के लिये आत्मा को तपना ही पड़ता है। ऐसे तप करने वाले को ही तपस्वी कहा जाता है। स्वेच्छा से वह तपता है, कष्टों को प्रसन्नता पूर्वक सहता है, किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करता। मानव का जीवन एक शुद्ध स्वच्छ दर्पण के समान होता है। इस पर समय-समय पर अशुद्ध कर्मों की धूल की परतें जमती रहती हैं। अतः तप द्वारा इस दर्पण की सफाई नितान्त आवश्यक है। जो व्यक्ति दर्पण में धूल के कणों को जमने देते हैं, फिर उनका जीवन दर्पण नहीं रह जाता, परमात्मा का बिम्ब उस पर बिम्बित नहीं होता। अतः दर्पण की स्वच्छता के लिए धूल हटाना आवश्यक है। यह तपस्या से ही सम्भव है। दर्पण यदि स्वच्छ है, तो परमात्मा का प्रतिबिम्ब अवश्य दिखाई देगा। कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति समान उपोषण कीजे। बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे।। भाव घरी तप घोर करो, नर-जन्म सदा फल काहे न लीजे। ज्ञान कहे तप जे नर भावत. ताके अनेकहि पातक छीजे।। कठोर कर्मों को गिराना अर्थात् क्षय करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, तप, उपवास आदि करना चाहिए। बारह प्रकार के तपों को भली प्रकार पालन कर पाप को जलांजलि क्यों न दे दी जाय? भावसहित घोर तप करके नरपर्याय का वास्तविक फल अर्थात् मोक्ष पद क्यों नहीं प्राप्त किया जाय? ज्ञानीजन कहते हैं कि जो मनुष्य भावसहित तपों को तपता है, उसके अनेक पापों का हरण हो जाता है। इस प्रकार नरपर्याय को सफल बनाना ही उसकी सार्थकता है। जो तप तपे खपे अभिलाषा, चूरै कर्म शिखर गुरु भाषा। गुरु कहते हैं कि जो प्राणी तप तपता है, उसकी सभी इच्छायें नष्ट हो जाती हैं और उसके सभी कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तप दोषों की निवृत्ति के लिए परम आवश्यक है। मिट्टी भी अग्नि के तपन को पार कर पात्र का रूप धारण करती है, तभी आदर प्राप्त कर पाती है। पहले कष्ट, फिर लाभ होता है। यह जो नरपर्याय है, यह एक जंक्शन हैं। प्रत्येक दिशा में यहाँ से लाईन जाती है। यहाँ से नरक, स्वर्ग, मनुष्य, तिर्यन्च W 277
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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