SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी पुत्री स्वीकार कीजिए और राजमहल में रहकर आनन्द कीजिए। दहेज में आपको आधा राज्य दूंगा। चोर सावधान होकर बोला कि राजन! मुझे यदि गृहस्थी के कीचड़ में फंसने की इच्छा ही होती, तो मैं साधु क्यों बनता? मैं तुम्हारी पुत्री का पति नहीं बनना चाहता। मैं योगी रहते हुए मुक्ति रूपी पत्नी का पति बनूँगा। यह कह कर वह वन में चला गया और मुनिदीक्षा लेकर तप करने लगा। दुःखी आदमी मनोरंजन के साधन खोजता है। एक आदमी एक शरीर से हजार रूप बनाता है-कभी पुजारी, कभी इन्द्र बनता है आदि । वह मन में भी अनेक रूप बनाता है, दुकान पर बेईमान बन जाता है, तो कभी दानी बनता है, लड़ने-झगड़ने के समय वह क्षत्रिय से कम नहीं होता। तो फिर सरलता कहाँ रही? जैसे किसी मंदिर के गुम्बज में कांच के हजार टुकड़े लगे हैं, तो आपको अपने हजार रूप दिखेंगे। उसमें एक दिया जलाया, तो हजार दिए जलते दिखेंगे। इसी तरह हम संसार में केवल अपने को देखेंगे तो अकेले होकर अपना रूप देख पाएँगे अन्यथा संसार में देखने पर अपने को हजार रूपों में विभक्त पाएँगे। हमारी यह रूप बदलने की माया ही है कि रात को सपना सच हो जाता है, दिन में संसार सच हो जाता है। सिनेमा के परदे पर प्रकाश की किरणें सच होती हैं, पर वास्तविकता कुछ भी नहीं है। जापान में एक फकीर नीम के पेड़ के नीचे साता था। कई लोग उसे प्रणाम करते थे। एक राजा ने निमंत्रण दिया तो फकीर उसके महल में रहने को चला गया। पर राजा हैरान हुआ कि कैसा साधु हैं, इसके कार्यकलाप विचित्र हैं। रातभर राजा सो न सका। सुबह होने पर राजा ने फकीर से पूछा-"क्या कारण है कि आप निश्चिन्त रहते हैं, आपको कोई तनाव नहीं है, यह मेरी शंका है।" फकीर ने कहा-"चलो एकान्त में बताऊँगा।" फकीर आगे चलता गया। राजा भी उसके पीछे-पीछे चलता गया। राजा भी पैदल गया। बहुत दूर निकल जाने पर राजा बोला- बताओ। फकीर बोला-और आगे चले चलो, फिर बताऊँगा। राजा बोला मेरा महल पीछे रह गया है, मैं अब आगे कैसे चलूँ? अब यहीं बताओ। फकीर बोला- मेरा कोई महल पीछे नहीं, तुम्हारी महल है। यही 0 2750
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy