SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को कुत्ते के समान कहें तो वह नाराज हो जाता है और यदि शेर के समान कहें तो वह खुश हो जाता है, ऐसा क्यों होता है । यह आध्यात्मिक मर्म बताने वाला अन्तर है। अगर कोई कुत्ते को लाठी मारता है तो कुत्ता उस लाठी को चबाने लगता है। वह समझता है कि मेरा दुश्मन यह लाठी है। मेरा अहित करने वाली यह लाठी है। यह हुई निमित्त दृष्टि अर्थात् निमित्त ही मेरा सब कुछ करने वाला है। जबकि शेर को कोई लाठी या तलवार से मारे तो शेर यह नहीं समझता कि मेरा दुश्मन लाठी और तलवार है, बल्कि वह यह जानता है कि मेरा दुश्मन यह व्यक्ति है और वह उस व्यक्ति पर ही हमला करता है। एक दृष्टि है कि मेरा दुश्मन लाठी है और दूसरी दृष्टि है कि मेरा दुश्मन व्यक्ति है । यही ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर है। ज्ञानी जानता है कि मेरा सुख तो मेरे अन्तर में है; धन वैभव परिवार में मेरा सुख नहीं है। जबकि अज्ञानी धन-वैभव, परिवार, कुटुम्ब आदि में ही सुख मानता है। अज्ञानी जीव ने अपनी प्रभुता को बरबाद कर दिया है। वह अपने असली स्वरूप को नहीं पहचानता, इसलिये शरीर की उत्पत्ति में अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश में अपना नाश मानता है। यह उसका भ्रम है। देखो मृत्यु के समय शरीर और आत्मा की भिन्नता स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है । कोई बड़ा राजा तीव्र पाप करके मर जाय, उसका शरीर तो अभी यहाँ मखमल के मुलायम - मुलायम बिस्तर में पड़ा हो और आत्मा नरक में पहुँच जाये, तो वह जीव नरक के घोर कष्टों का वेदन करता है । यह शरीर उसका कहाँ था ? यदि शरीर उसका हो तो उसे नरक में भी सुखी होना चाहिये, क्योंकि शरीर तो अभी भी मखमल के मुलायम गद्दे में पड़ा है । पर ऐसा नहीं होता । यहाँ शरीर भले मखमल के गद्दों पर पड़ा हो, परन्तु वह आत्मा तो नरक में घोर कष्टों का ही वेदन करती है। कोई सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा चक्रवर्ती भी हो, 96 हजार रानियाँ हों, सोलह हजार देव उनकी सेवा करते हों, तो भी वे जानते हैं कि यह सब वैभव हमारा नहीं है, मैं तो इन सबसे भिन्न चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ। शरीर की उत्पत्ति में अपनी उत्पत्ति तथा शरीर के नाश में अपना नाश मानना, यह अजीव तत्त्व की भूल है । 26 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy