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________________ रागादिभाव प्रगट रूप से दुःखरूप होने पर भी अज्ञान से जीव उन्हें सुखरूप मानकर उनका सेवन करता है, यह आस्रव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। रागादि भावों से कर्मों का आस्रव-बंध होता है, जो संसारभ्रमण का कारण है। रत्तो बंधदि कम्म, मुंचदि जीवो विरागसम्पण्णो। ऐसो जिणोवदेसो, तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। रागीजीव कर्मों का बन्ध करता है और वैराग्य से सम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है। अतः रागादि में सुख मानकर उनका सेवन मत करो। जितने भी राग-द्वेष, मोह आदि विकारी भाव हैं, वे दुःख देने वाले हैं, उन्हें सुख का कारण समझना आस्रव तत्त्व की भूल है। यहाँ तत्त्वों के सम्बन्ध में जो भूलें बताई जा रही हैं, उन्हें अच्छे प्रकार से समझकर छोड़ देना चाहिये। नहीं तो तत्त्वों को समझे बिना हम धर्म के मार्ग पर चलकर भी जहाँ के तहाँ ही रहेंगे। जैसे गर्मी के दिनों में रात के समय समुद्र के किनारे खड़ी हुई एक नाव में कुछ व्यक्ति बैठ गये। नाव रस्सी के द्वारा एक खूटे से बंधी थी। उसको खूटे से खोला नहीं और उस पर बैठ गये। वे नाव को खे रहे हैं ताकत लग रही है. परिश्रम लग रहा है, रात भर नाव चलाई, वे मन में सोच रहे थे कि अब चार मील पहुँच गये होंगे, अब 6 मील पहुँच गये होंगे, मैं नाव को अपने गाँव की ओर ले जा रहा हूँ, बड़े खुश हो रहे थे। पर जब सुबह हुई तो देखा कि नाव अपनी ही जगह पर खड़ी है। वे एक दूसरे को देखकर बोले-यार! भूल हो गई। बहुत परिश्रम किया, ताकत लगाई, पर नाव वहीं की वहीं रही। क्या गलती हो गई? रस्सी को खूटे से नहीं खोला। इसी प्रकार धर्म करते हुये 40-50-60 वर्ष हो गये, पर आज तक धर्म का फल जो शान्ति है, वह प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि मोह के खूटे से उपयोग की रस्सी बंधी हुई है, उसे खोला नहीं। यह जीव राग-द्वेष की वजह से दुःखी है, पर-पदार्थों की वजह से नहीं। 0 27 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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