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________________ श्रेयस्कर है। पहली पापक्रिया और चौथी शुद्धक्रिया में पापक्रिया तो अत्यन्त हेय है तथा शुद्ध क्रिया अत्यन्त उपादेय है । अब विचारना तो दूसरी व तीसरी क्रिया के संबंध में है कि उन्हें हेय माने या उपादेय? दूसरी क्रिया अशान्ति के कारण यद्यपि हेय है, पर पहली की अपेक्षा मन्द अशान्ति होने के कारण कथंचिंत् उपादेय भी है। तीसरी क्रिया यद्यपि क्रियारूप न होकर भावरूप है, शान्ति का अंश रहने के कारण उपादेय है, परन्तु चौथी क्रिया की अपेक्षा अशान्ति का अंश रहने के कारण हेय है । अर्थात् ज्ञानधारा में रंगी सर्व क्रियायें उपादेय हैं और कर्मधारा में रंगी सर्व क्रियायें हेय हैं। आंशिक ज्ञानधारा में रंगी क्रियायें प्रथम भूमिका में अभ्यास करने के अर्थ प्रयोजनवान हैं। अब हमें छाँटना है कि कौन-सी क्रिया करें। जिसमें चारों प्रकार की क्रिया करने की शक्ति न हो, वह कितनी में से छाँट करेगा? उतनी में ही से तो करेगा जितनी कि वह कर सकता है। ज्ञानीजीव जिन्होंने कुछ भी शान्ति का वेदन कर लिया है वे तो चारों क्रियायें कर सकते हैं और इसलिये उन्हें तो चारों में से छाँट करनी है, परन्तु वे व्यक्ति जिन्होंने कुछ भी शान्ति का परिचय प्राप्त नहीं किया है, वे केवल पहली दो क्रियायें ही कर सकते हैं। अगली दो उनके पास हैं ही नहीं, क्या करें? यद्यपि अभिप्राय में से भोगाभिलाष जाती रही है, परन्तु शान्ति के वेदन से रहित होने के कारण इनका समावेश तीसरी क्रिया में नहीं किया जा सकता। इसलिये उन्हें केवल पहली दो क्रियाओं में से छाँट करनी है। विषय स्पष्ट हो गया । ज्ञानी व्यक्ति तो चौथी क्रिया करने का ही भरसक प्रयत्न करेगा, परन्तु अल्प भूमिका में शक्ति की हीनतावश वहाँ अधिक समय न टिका रह सके तो शेष समय तीसरी क्रिया में बिताने का प्रयत्न करेगा, दूसरी क्रिया उससे होगी ही नहीं, क्योंकि शुभ क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति तीसरी कोटि में चली जायेगी। गृहस्थ दशा में, करने का अभिप्राय न होते हुये भी, पूर्व संस्कारवश, यदि कदाचित् पहली क्रिया हुई भी, तो उसके प्रति अपना बहुत अधिक निन्दन करेगा। परन्तु अज्ञानी जीव अभिप्राय बदल जाने पर और शान्ति की जिज्ञासा जागृत हो जाने पर दूसरी क्रिया को करने का तथा तीसरी क्रिया 1842
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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