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________________ की कोटि में प्रवेश पाने का भी भरसक प्रयत्न करेगा। पहली क्रिया करने का स्वयं प्रयत्न नहीं करेगा, परन्तु यदि संस्कार वश हो ही गई तो उसके लिये अपनी निन्दा करेगा। प्रथम क्रिया के सोपान को छोड़कर द्वितीय क्रिया के सोपान पर, उस पर पाँव जमने के उपरान्त उसे छोड़ तृतीय सोपान पर और इसमें भी अभ्यस्त हो जाने पर चतर्थ सोपान पर चढते जाना ही साधना का क्रम है। भगवान् में दोष जरा भी नहीं होता और गुण पूरे विकसित हो जाते हैं। यह वैभव मेरे स्वभाव में भी पड़ा हुआ है। यह वैभव प्रकट हो जाये तो हम सच्चे वैभववान् हैं। निर्दोषता और गुणविकास यदि नहीं बनता है, तो इन पौद्गलिक ढेरों के समागम से क्या तत्त्व निकलेगा? इस अनादि- अनन्त काल के सामने ये 10-20-50 वर्ष क्या गिनती रखते हैं जिनमें हम विषय-भोगों का आराम चाह रहे हैं? यह समय भी झट निकल जायेगा और जो पाप भोगने पड़ेंगे वह काल निकट आ जायेगा। तो ऐसा जानकर निर्णय करें कि राग-द्वेष भाव, आस्रव भाव, कषाय भाव, ये सब हेय हैं और अपने आपका जो सहज ज्ञानज्योति स्वरूप है, वह मेरा उपादेय भाव है। अतः आस्रव-भावों को छोड़कर स्वभाव की ओर आने का प्रयास करो। व्यक्ति जैसे शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल की प्राप्ति होती है। सुख हो या दुःख, जिम्मेदार स्वयं हो। प्राक् पदवी में व्यवहारनय का उपदेश प्रयोजनवान है - समयसार की ‘सप्तभंगी' टीका में श्री सहजानन्द वर्णी जी ने लिखा है कि यदि तुम वास्तव में आत्मकल्याण करना चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो। अपने-अपने समय में दोनों ही नय कार्यकारी हैं। लोक में सोने के सोलह ताव प्रसिद्ध हैं। उनमें पन्द्रह ताव तक तो परसंयोग की कालिमा रहती है, अतः तब तक उसे अशुद्ध कहते हैं और फिर ताव देते-देते जब अन्तिम ताव से उतरे, तब सोलहवान् शुद्ध स्वर्ण कहलाता है। जिन जीवों को सोलहवान् वाले सोने का ज्ञान, श्रद्धान तथा उसकी प्राप्ति हुई है, उनको पन्द्रहवान् तक का सोना कुछ प्रयोजनवान् नहीं है। और जिनको 0 1850
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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