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________________ परिवर्तन में निमित्तकारण कालद्रव्य ही है। काल भयंकर नहीं, प्रत्युत सुन्दर है, क्योंकि यदि यह अखिल सृष्टि परिवर्तनशील न होती अर्थात् स्तब्ध होती, तो सुन्दर भी न होती। परिवर्तन ही इसका सौन्दर्य है और यह काल का ही अनुग्रह है। ज्ञानी जीव इससे भय नहीं खाते। वे इसके भय से मुक्त हैं, क्योंकि वे जग-प्रपंच को पहले से ही असत् अर्थात् न हुए के बराबर जानकर उसमें फँसते नहीं हैं। पदार्थों की पर्यायों में होनेवाला परिवर्तन ही कालद्रव्य का लक्षण है। जिस प्रकार धर्म व अधर्म द्रव्य जबरदस्ती पदार्थों को गमन आदि नहीं कराते, बल्कि स्वयं स्वतंत्र रूप से गमनादि करते हुओं को सहायक मात्र होते हैं, इसी प्रकार कालद्रव्य भी जबरदस्ती परितर्वन कराता हो, सो बात नहीं है। स्वतः स्वतंत्र रूप से परिवर्तन करने वालों को वह सहायक मात्र होता है। कालद्रव्य परमाणु के आकार का अर्थात् एकप्रदेशी होता है। एकप्रदेशी का अर्थ यह नहीं कि यह पदार्थ संख्या में भी एक ही है। इसका केवल इतना ही अर्थ समझना कि कालद्रव्य अणुरूप है, इसलिये इसे कदाचित् कालाणु भी कहते हैं। जिस प्रकार लोक में परमाणु अनेक हैं, उसी प्रकार कालाणु भी अनेक हैं। अंतर केवल इतना है कि परमाणु तो अनन्तानन्त हैं, परन्तु कालाणु असंख्यात मात्र हैं। इन विचित्र कालाणुओं को लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर एक-एक करके रखा हुआ माना जाता है। अतः जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही कालाणु हैं। परमाणु तथा कालाणु में इतना अन्तर और है कि परमाणु तो मूर्तिक है अर्थात् रूप, रस, गन्ध व स्पर्श को रखने वाला है, परन्तु कालाणु अमूर्तिक है। परमाणु एक आकाशप्रदेश पर अनेकों रहते हैं, परन्तु कालाणु एक प्रदेश पर नियम से एक ही रहता है। परमाणु गमनागमन कर सकते हैं, परन्तु कालाणु नियम से गमनागमन नहीं करते। परमाणु तो अपने स्थान बदल लेते हैं, परन्तु कालाणु अपना स्थान नहीं बदलते। परमाणु तो परस्पर में मिल-जुलकर बड़े व छोटे स्कन्धों का निर्माण कर लेते हैं, परन्तु कालाणुओं में परस्पर मिलने की शक्ति नहीं है, क्योंकि इनमें स्निग्ध तथा रूक्ष गुण नहीं पाये जाते, जिनके 0 169_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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