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________________ नहीं रहा, अयोध्या का वैभव नहीं रहा । कृष्ण जी नारायण थे, लेकिन उनका भी अवसान हुआ और वह भी जंगल में। जब सभी की मृत्यु निश्चित है, तो बुद्धिमानी इसी में है कि जाने से पहले इस पुद्गल की आसक्ति को छोड़ दें जिससे यह जन्म-मरण का चक्कर ही समाप्त हो जाये । आकाश द्रव्य आकाश द्रव्य वह है जिसमें सब द्रव्यों का निवास है । इसके लोकाकाश व अलोकाकाश दो भेद हैं। जितने आकाश में शेष 5 द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं तथा लोकाकाश के बाहर सब ओर जो अनन्त आकाश है, उसे अलोकाकाश कहते हैं । अलोकाकाश में एकमात्र आकाश द्रव्य है, शेष पाँच द्रव्य नहीं हैं। यह जो अपने चारों ओर दायें-बायें, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सर्वत्र जहाँ तक भी दृष्टि जाती है, जो खाली जगह दिखाई देती है, वही आकाश है। अंग्रेजी में इसे स्पेस कहते हैं । आकाश पदार्थ बिल्कुल अमूर्तिक है। जो कुछ भी इन्द्रियों से दिखाई देता है या किसी भी प्रकार जाना जाता है, वह सब पुद्गल है। केवल पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है, शेष पाँचों द्रव्य अमूर्तिक हैं, वे इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते। आकाश के जितने क्षेत्र में शेष 5 द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। शेष आकाश को अलोकाकाश कहते हैं । आप यदि विश्व को संकुचित दृष्टि से न देखकर व्यापक दृष्टि से देखने लगें तो आपको घर, नगर, देश, पृथ्वी आदि भी परमाणुवत् लगने लगेंगे। सकल लोक के समान इन सबका कोई मूल्य नहीं रह जायेगा। आपकी सब वासनाएँ तथा कामनाएँ स्वतः शान्त हो जायेंगी । T एक गाँव में चार मित्र रहते थे। उनमें प्रगाढ़ मित्रता थी । वे सुख - दुःख में एक दूसरे का साथ पूर्णतया निभाते थे। समय का चक्र ऐसा बदला कि उन चारों मित्रों का व्यापार बिलकुल ठप्प हो गया। तब उन्होंने आपस में सोच-विचार कर निर्णय लिया कि अब हमें अपना भाग्य आजमाने के लिये किसी दूसरे देश में जाना चाहिये। अतः एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर चारों मित्र अपने गाँव से चल पड़े। यात्रा करते-करते उन्होंने जंगल और पहाड़ियों को पार किया । एक ₪ 162 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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