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________________ यह जगत जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्यों को समुदाय है। इस जगत में भ्रमण करने वाला आत्मा अनन्तवार चक्कर लगाकर बार-बार उन्हीं स्थानों की स्पर्श करता है और सुख व शान्ति को ढूँढ़ते हुए भी उसका अनुभव नहीं कर पाता, क्योंकि वह जिन पुद्गललादि परद्रव्यों में आसक्त हो जाता है, वह दुःख और अशान्ति का मार्ग है; यह आत्मा इस संसार में अज्ञान के कारण अपने आपको भूलकर इस तरह बेखबर हो रहा है कि यह सब जगत् की वस्तुओं को अपनाना चाहता है। इसकी भूल इतनी गहरी है कि जो शरीर, धन, स्त्री, पुत्र आदि चेतन–अचेतन पदार्थ बिल्कुल 'पर' हैं, उनको अपना मानकर उनसे प्रेम करता है। इसने अनादिकाल से जिससे प्रेम किया, उसी ने ही ठगा, उसने ही भव-भव भ्रमण कराया। इन पुद्गलादि परद्रव्यों की आसक्ति के कारण मैंने जो-जो संताप सहे, वे अकथनीय हैं। जैसे रज्जू को सर्प जान कोई भय से भागा-भागा फिरे, ऐसे ही मैं फिरा और वृथा ही क्लेशित हो दुःख सहा । अपना आनन्द अपने पास, अपना प्रभु अपने पास होते हुए भी उसे न जाना और इस पुद्गल को अपना मानकर अहंकार व ममकार करता रहा और 84 लाख योनियों में भटकता हुआ दुःख उठाता रहा । आत्मा भले ही इस नौकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म से निर्मित घर में रह रहा है, अनादिकाल से रहता चला आया है, पर यह सभी परद्रव्यों, परद्रव्यों के भाव तथा परद्रव्यों के निमित्त से होने वाले भावों से पृथक् है। अतः इन पुद्गलादि परद्रव्यों का अभिमान छोड़कर अपनी आत्मा को जानने का प्रयास करो। एक सेठ जी थे, वे बड़े अभिमानी थे। उन्होंने दस बारह खंड के भवन का निर्माण कराया। एक बार एक साधु जी उनके यहाँ आये । अतिथि की तरह उनका स्वागत हुआ और भोजन के उपरान्त सेठ जी बड़े चाव से उन्हें साथ लेकर पूरा भवन दिखाने लगे और अंत में दरवाजा आया तो सभी बाहर निकल आये। साधुजी के मुख से अचानक निकल गया कि एक दिन सभी दरवाजे के बाहर निकाल दिये जाते हैं, तुम भी निकाल दिये जाओगे । सेठ जी हतप्रभ खड़े रह गये। साधुजी चले गये । सेठ जी अकेले खड़े-खड़े सोचते रहे कि क्या मुझे भी एक दिन बाहर निकल जाना होगा? स्वर्ण की नगरी लंका नहीं रही, रावण U 161 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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