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________________ सबकुछ केन्द्रित है, उसकी उत्पत्ति से यह अपनी उत्पत्ति मानता है। कर्मोदय से इसे अनेक प्रकार के संयोगों की प्राप्ति होती है। फिर उन संयोगों में जो यह अपनापन मानता है, उससे पुनः नये कार्मों का बंध हो जाता है। यदि किसी ने रस्सी को साँप समझ लिया, तब रस्सी तो साँप नहीं हो जाती, परन्तु अपनी मान्यता विपरीत होने से वह व्यक्ति भयभीत अवश्य हो जाता है। उसका भय तब तक नहीं मिट सकता जब तक कि वह व्यक्ति रस्सी को रस्सी नहीं समझ लेता। इसी प्रकार इस बहिरात्मा जीव ने 'पर' को अपना मान रखा है। उसका बहिरात्मपना 'पर' में अपनापन छोड़े बिना किसी अन्य उपाय से नहीं मिट सकता। अतः पर में अपनापन छोड़ने के लिये अपने चैतन्य स्वरूप को जानने का प्रयास करो। जब यह जीव अपने को चेतन-रूप देखता है, तब विकारों का अभाव होने लगता है और शरीररूप देखता है तो विकार बढ़ने लगते हैं। हे जीव! दोनों संभावनाएँ आपके पास हैं-चाहे स्वयं को चेतनरूप देखो. चाहे शरीर रूप। चेतनरूप देखोगे तो परमात्मपने के नजदीक हो जाओगे, शरीररूप देखोगे तो उससे दूर होते जाओगे। __चक्रवर्ती पद छोड़ना भी जिसके सामने सरल लगता है, ऐसा चैतन्य हीरा प्रत्येक प्राणी के पास है। पर चैतन्य हीरा की कीमत तो ज्ञानीजीव ही समझ सकते हैं। जिनकुमार और लक्ष्मीकुमार दो मित्र थे। जिनकुमार की माँ ने उसे धर्म के अच्छे संस्कार दिये थे। वह गरीब था। उसके पास धन-वैभव नहीं था। घर भी छोटा था। फिर भी उसके घर में धर्म के उत्तम संस्कारों से उसका जीवन सुखी था। ___ दूसरे मित्र लक्ष्मी कुमार के घर में हीरे-जवाहरात की बहुलता थी, लेकिन सुख नहीं था, क्योंकि उस घर में धर्म के संस्कार बिलकुल नहीं थे। बाह्य वैभव के मोह से वह दुःखी था। जिस दिन लक्ष्मीकुमार का जन्मदिन था, उस दिन जिनकुमार का भी जन्मदिन था। दोनों मित्रों ने मिलकर बहुत आनन्द मनाया। जन्मदिन की खुशी में लक्ष्मीकुमार के पिता धनजी सेठ ने उसे कई प्रकार की मिठाइयाँ खिलाईं, कीमती वस्त्र पहनाये और एक सुंदर अँगूठी पहनाई, जिसके बीच में एक सुन्दर _0_127_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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