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________________ पहचानता, इसलिए स्वयं सहजसुख का सागर होते हुए भी सुख को न पाकर सदा दुःखी बना रहता है। जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, वह उसकी सुगंध का अनुभव करता है, परन्तु उस कस्तूरी को अपनी नाभि में न देखकर बाहर ही बाहर ढूँढ़ता रहता है और दुःखी होता रहता है। जो भी इस दुःखमय संसार से पार होना चाहे और सदा सुखमय जीवन बिताना चाहे उसको उचित है कि वह चैतन्यस्वरूप आत्मा को पहचान कर जौहरी बने। इन्द्रियसुख रूपी काँचखण्ड को रत्न समझकर अपने को न ठगावे । आत्मिक सुख अपने ही पास है। उसे प्राप्त करने के लिए उपयोग स्वरूपी चैतन्य आत्मा को पहचानने का प्रयास करे। अपने साधु मित्र की बात सुनकर वह गद्-गद् होकर बोला- अहो मित्र! तुमने हमारे चैतन्य स्वरूप को बताकर मुझ पर परम उपकार किया है। और उसने भी अपने आत्मिक सख को प्राप्त करने के लिये अपने मित्र के पास ही मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। जो अपने चैतन्य स्वभाव को नहीं जानते और परपदार्थों में यह मानते हैं कि "यह मैं हूँ" और "यह मेरा है' वे जीव बहिरात्मा हैं। पर में अहम्बुद्धि होना मोक्षमार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। मैं संन्यासी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, मैं यह हूँ, मैं वह हूँ–यह सब 'मैं का ही खड़ा किया हुआ भवन है। पंडित को लगता है कि 'मैं कुछ हूँ।' त्यागी को लगता है कि 'मैं कुछ हूँ।' साधु को लगता है कि 'मैं कुछ हूँ।' अहंकार एवं बहिरात्मपने से मुक्ति का उपाय है 'मेरेपन' से मुक्ति । अधर्म 'मैं' को भरता है, जबकि धर्म 'मैं' से रहित करता है। वही व्यक्ति बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनता है जिसका मैं छिन गया। यह तभी हो सकता है, जब यह जीव अपने चैतन्य-स्वभाव को अपने-रूप देखे, अनुभव करे। तब पर्याय के स्तर पर होने वाली सभी अवस्थायें इसे अपने से भिन्न दिखाई देंगी। अनादिकाल से संसार में रहनेवाला यह बहिरात्मा जीव, जो भी संयोग इसे मिलते हैं उसमें अपनी अज्ञानता के कारण अपनेपने की बुद्धि करके और उन्हीं में अहंभाव करके दुःखी हो रहा है। अधिक क्या कहूँ, इस शरीर पर ही इसका 0 126 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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