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________________ आगम का दूसरा दृष्टान्त है अर्जुन का । कौवे के नेत्र को बींधने को धनुष पर बाण चढ़ाये अर्जुन खड़ा है। गुरु पूछते हैं कि क्या दिखाई दे रहा है? जवाब मिला कि कौवे का एक नेत्र और वह भी उस समय जबकि वह पुतली में आता है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । वहाँ उस कौवे का इतना बड़ा शरीर विद्यमान होते हुये भी उसे दिखाई कैसे देता? उसके लक्ष्य में तो था केवल एक नेत्र। इसी प्रकार अन्तरात्मा जीव संसार में रहता हुआ भी उससे बैरागी रहता है और अपने परम लक्ष्य ( आत्मा की पूर्ण शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष) की ओर बढ़ता चला जाता है । वह अपने पूर्व जीवन पर पश्चाताप करता है कि मैंने अपना इतना अमूल्य मनुष्य जीवन व्यर्थ में खो दिया, मानों रत्न को कौड़ियों के मोल गँवाया, ईंधन के लिये चन्दन को जलाया और पैर धोने के लिए अमृत को काम में लिया । आज तक मैं मोह-नींद में सो रहा था । अपने भीतर जो सुख और ज्ञान का भंडार है, उसके पते से तो मैं बेखबर था और सुख की इच्छा से परपदार्थों की तृष्णा में जल रहा था। जैसे सोया हुआ मनुष्य अपनी गफलत से चोरों द्वारा लूटा जाता है, वैसे ही मैं इन इन्द्रिय-विषयों की चाह - रूप चोरों से लूटा गया । अब जब मैं जागा तो मैंने अच्छी तरह पहचाना कि मैं तो पुद्गलादि परद्रव्यों से भिन्न, राग-द्वेषादि विकारों से रहित परमानन्दमय आत्मा हूँ । सर्वगुणों का धाम यह आत्मा सर्वद्रव्यों में उत्तम द्रव्य व सर्वतत्त्वों में उत्तम तत्त्व है। प्रत्येक जीव को अपनी आत्मा का स्वभाव शुद्ध - बुद्ध, आनन्दमयी और सिद्ध भगवान् के समान ही देखना चाहिये और अपनी अवस्थाओं को कर्मजनित मानना चाहिये; क्योंकि आत्मा का स्वरूप पुद्गल के साथ एक क्षेत्रावगाह होने पर भी जीव जब उसको पुद्गल से भिन्न मानने लगता है, तब वह बहिरात्मा से अन्तरात्मा हो जाता है । हम और आप सब प्रभु की तरह पवित्र हैं, उन्हीं के समान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त वीर्य से भरपूर हैं; पर हमें स्वयं अपना परिचय नहीं है; यह सब मोह का नशा है, इसलिये चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ रहा है। मोह के नशे के कारण ये संसारी प्राणी स्त्री, पुत्र, 1232
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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