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________________ कुटुम्बियों को अपना मान लेते हैं, जबकि आचार्य उन्हें समझाते हैं कि कुटुम्बियों का सम्बन्ध एक वृक्ष पर बसेरा करनेवाले पक्षियों के समान है । 'इष्टोपदेश' ग्रन्थ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है - दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसंति स्वस्वकार्य वशाद्यांति, देशे दिक्षु नगे - नगे । प्रगे - प्रगे । । अनेक दिशाओं विभिन्न स्थानों से कई पक्षी आकर रात्रि को एक वृक्ष पर मिलकर बसेरा कर लेते हैं और सबेरा होते-होते वे पक्षी अपने-अपने कार्यवश अनेक दिशाओं के भिन्न-भिन्न स्थानों को चले जाते हैं । इसी तरह एक कुटुम्ब में भी भिन्न-भिन्न गतियों से भिन्न-भिन्न जीव आकर एकसाथ रहते हैं और जब भी जिसकी आयु पूरी होती है, तब ही वह उस कुटुम्ब को छोड़कर दूसरी गति में अपने कर्मों के अनुसार चला जाता है । जैसे वे पक्षी थोड़ी देर के लिये यद्यपि एकसाथ ठहरते हुये भी भिन्न-भिन्न ही हो हैं, वैसे एक कुटुम्ब में भी सब जीव अपनी भिन्न-भिन्न सत्ता, कर्म, आचरण और स्वभाव वाले होते हैं। ज्ञानी अन्तरात्मा जीव बाहर में उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करता हुआ भी अपने को उनसे भिन्न ही समझता है। जो कोई जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्म से भिन्न ( रहित ) आत्मा के स्वरूप को पहचानता है, उसको कभी भी शरीर व कर्मों में आत्मपने की भ्रान्ति नहीं होती। ऐसा अन्तरात्मा ही भेदज्ञानी महात्मा कहलाता है। वह अपने स्वभाव का और स्वभाव में रहनेवाले अतीन्द्रिय आनन्द का प्रेमी हो जाता है। वह अपनी आत्मा का अनुभव किया करता है। वास्तव में स्वानुभव ही वह मंत्र है जिस मंत्र के प्रभाव से राग-द्वेषादि सर्पों का विष उतर जाता है। वह विचार करता है कि यथार्थ में मेरी आत्मा का स्वभाव कर्म - कलंक रहित, राग-द्वेष- मोह रहित, ज्ञानमयी, आनन्दमयी, अनन्तसुख से भरपूर, सिद्ध भगवान् के समान शुद्ध अन्तरात्मा जीव को संसार, शरीर व भोगों से सच्चा वैराग्य होता है । वह जानता है कि संसार की कोई भी अवस्था मेरे लिये हितकारी नहीं है । I अन्तरात्मा को संसार, शरीर व भोगों से सच्चा वैराग्य होता है । वह जानता है कि सुख तो चेतन आत्मा का गुण है, वह जड़ - सम्पदा में नहीं होता । आचार्य 1242
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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