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________________ ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्ममल, वर्जित सिद्ध महंन्ता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता।। देशव्रती श्रावक एवं छटवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज मध्यम अन्तरात्मा हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं। द्विविध परिग्रह से रहित निजस्वरूप के ध्यान में लीन सातवें से बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज उत्तम अन्तरात्मा हैं। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के ये सभी अन्तरात्मा-जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं और मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं। परमात्मा के दो रूप हैं-सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। श्री अरहन्त भगवान् सकल परमात्मा हैं। उन्होंने घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है और वे लोक और अलोक को जानते हैं अर्थात् केवलज्ञानी हैं। शरीर सहित, चार घतिया कर्म रहित, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य से अलंकृत, सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशी अरहन्त भगवान् को सकल परमात्मा कहते हैं तथा आठ कर्मों से रहित, लोक के अग्र भाग में विराजमान शाश्वत निजानन्द का पान करने वाले सिद्ध भगवान को निकल परमात्मा कहते हैं। जो अन्तर में देह से भिन्न आत्मस्वरूप को पहचानता है, वह अन्तरात्मा है। अन्तरात्मा संसार, शरीर व भोगों से विरक्त रहता है। आगम में इस बात का समाधान भरत चक्रवर्ती का उदाहरण देकर किया गया है - किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया कि भरत जी घर में रहकर वैरागी कैसे रह सकते हैं, उनकी 96 हजार रानियाँ हैं, वे छ: खण्ड के अधिपति हैं? भरत जी ने तेल से भरा एक कटोरा उसके हाथ में दिया और आज्ञा दी कि सारे नगर में घूमकर आओ, पर यदि तेल की एक बूंद गिरी तो तुम्हारे पीछे चलने वाला सिपाही तत्क्षण तलवार से तुम्हारा सिर उड़ा देगा। ___ आज्ञा का पालन हुआ। लौट आने पर उस व्यक्ति से पूछा गया कि उसने नगर में क्या देखा? क्या बताता बेचारा। तेल और अपना सिर या तलवार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं दिया था उसे, नगर में क्या देखता? बस, अन्तरात्मा ज्ञानीजीव को भोग आदि भोगते समय रस कैसे आवे? उसे तो दिखाई देता है अपना लक्ष्य, आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करना। 0 122
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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