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________________ [१७] से दूर हो, छह दिशाओं को प्रतिच्छादित कर दोनों लोकों की विजय में लग जाता है और मरने पर स्वर्ग - लाभ करता है । चार कर्म-क्लेश हैं - जीव-हिंसा, चोरी, व्यभिचार और असत्य भाषण । पाप-कर्म न करने वाले चार स्थान हैं- छंद, द्वेष, मोह और भय के रास्ते न जाना । छह अपाय- मुख (विनाश के हेतु) हैं- नशे का सेवन, संध्या- समय चौरस्ते की सैर, नाच-तमाशे में लगना, जुआ और दूसरी मस्तिष्क बिगाड़ने वाली प्रवृत्तियों में लगना, बुरे मित्र की मिताई और आलस्य में फँसना । तत्पश्चात भगवान ने बतलाया कि इन चार को मित्र के रूप में अ-मित्र जानना चाहिएपरधनहारक, बातूनी, खुशामदी तथा विनाश में सहायक। और इन चार मित्रों से सुहृद जानना चाहिए - उपकार करने वाला, सुख-दुःख समान भाव रखने वाला, अर्थ की प्राप्ति का उपाय बतलाने वाला और अनुकंपा करने वाला । तदुपरांत भगवान ने छह दिशाओं के प्रतिच्छादन के बारे में समझाया - माता-पिता को पूर्व-दिशा, आचार्यों को दक्षिण दिशा, पुत्र- स्त्री को पश्चिम दिशा, मित्र - अमात्यों को उत्तर दिशा, दासों - कर्मकरों को नीचे की दिशा और श्रमण-ब्राह्मणों को ऊपर की दिशा जानना चाहिए । भगवान ने यह भी प्रज्ञप्त किया कि इन लोगों की सेवा कितने-कितने प्रकार से की जानी चाहिए और सेवा पा कर ये लोग सेवा करने वाले पर किस-किस प्रकार से अनुकंपा करने लगते हैं । ऐसा होने पर विभिन्न दिशाएँ प्रच्छन्न ( ढँकी हुई), क्षेमयुक्त और निरापद हो जाती हैं । ९. आटानाटियसुत्त एक काल भगवान राजगह के गिज्झकूट पर्वत पर विहार करते थे। उस समय चारों दिशाओं के अभिपालक महाराजा (वेस्सवण, धतरट्ठ, विरुळ्हक और विरुपक्ख) अपने यक्षों, गंधर्वों, कूष्मांडों तथा नागों की विशाल सेना के साथ उनके पास गये । वहां पर वेस्सवण महाराज ने भगवान से कहा कि बहुत यक्ष आपसे प्रसन्न हैं और बहुत से अ-प्रसन्न | आप जीव - हिंसा, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलने और नशे का सेवन करने से विरत Jain Education International 27 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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