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________________ [१६] लक्षणों से युक्त व्यक्ति की दो ही गतियां होती हैं, कोई अन्य नहीं । यदि वह घर में रहता है तो धार्मिक, धर्म-राजा, चारों ओर विजय पाने वाला, लोगों की भलाई का संरक्षक, सात रत्नों से युक्त चक्रवर्ती राजा होता है । वह सागर-पर्यंत इस पृथ्वी को दंड और शस्त्र के बिना ही धर्म से जीत कर इस पर प्रतिष्ठित होता है। यदि वह घर से बेघर हो कर प्रव्रजित होता है तो संसार के आवरण को हटाने वाला अरहंत, सम्यक संबुद्ध होता है तत्पश्चात भगवान ने बत्तीस महापुरुष-लक्षणों का विवरण देते हुए कहा कि इन लक्षणों को बाहर के ऋषि भी जानते हैं, किन्तु वे यह नहीं जानते कि किस-किस कर्म के करने से किस-किस लक्षण का लाभ होता है। तदनंतर भगवान ने यह स्पष्ट किया कि तथागत द्वारा अपने पूर्व के जन्मों में मनुष्य का जीवन बिताते हुए किस-किस प्रकार के उत्तम कर्म किये जाते हैं जिनके फलस्वरूप वर्तमान जीवन में महापुरुष-लक्षण प्रकट हो जाते हैं, और ऐसे लक्षणों वाला व्यक्ति यदि चक्रवर्ती राजा बने तो उसे किस-किस बात की उपलब्धि होती है और यदि वह सम्यक संबुद्ध बने तो उसे क्या-क्या उपलब्धि होती है। तथागत द्वारा अपने पूर्व-जन्मों में किये जाने वाले कर्म ऐसे होते हैं, जैसे - सदाचार का जीवन जीना, बहुत लोगों को सुख पहुँचाना, जीव-हिंसा से विरत रहना, उत्तम भोजन का दान, लोगों का परस्पर मेल कराना, अर्थ-धर्म-युत वाणी, श्रद्धापूर्वक कलाएं सीखना, हित-जिज्ञासा, अक्रोध, वस्त्र-दान, बिछुड़े हुओं का मेल कराना, योग्य-अयोग्य पुरुष का विचार, परहित-आकांक्षा, दूसरों को न सताना, प्रिय-दृष्टि, कुशल कर्मों में अगुआपन, सच्ची प्रतिज्ञा करना, कलह मिटाना, मीठा बोलना, भावपूर्ण वचन, सम्यक आजीविका । ८. सिङ्गालसुत्त एक समय भगवान राजगह में वेळुवन के कलन्दकनिवाप में विहार करते थे। उन दिनों एक तरुण गृहस्थ सिङ्गाल ने उनसे यह जानना चाहा कि आर्य-विनय में छह दिशाओं को नमस्कार कैसे किया जाता है। इस पर भगवान ने कहा जब आर्य-श्रावक के चार कर्म-क्लेश नष्ट हो गये होते हैं, वह चार स्थानों से पाप कर्म नहीं करता और छह अपाय-मुखों का सेवन नहीं करता – तब वह चौदह पापों 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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